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________________ २४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ बिना वह सुख की अनुभूति नहीं कर सकता। व्यावहारिक लोग धन, इन्द्रियविषय, भौतिक साधन आदि को सुख के कारण मानते हैं, परन्तु रुग्ण, अस्वस्थ, शोकग्रस्त, मानसिक चिन्ता, पीड़ित अवस्था में ये सब चीजें सुख-शान्ति की कारण नहीं बनतीं, उलटे अशान्तिदायक प्रतीत होती हैं। __बड़े-बड़े चक्रवर्ती, राजा, श्रेष्ठी आदि अपनी सब सुख-सामग्री, विषयोपभोग के साधन, सुविधाएं आदि छोड़कर त्याग और संयम का मार्ग क्यों अंगीकार करते थे? इसीलिए कि इन भौतिक पदार्थों में कहीं सुख-शान्ति नहीं है। सुख-शान्ति स्वेच्छा से तप और संयम का मार्ग अंगीकार करने से प्राप्त होती है। संयमयुक्त जीवन में ही उन्हें सच्ची सुख-शान्ति, स्वतंत्रता, मुक्ति-सुख आदि की प्रतीति हुई थी। निष्कर्ष यह है--संयम में पुरुषार्थ करने वाला ही जितात्मा होता है, वही स्थायी सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है। कविकुलभूषण पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी महाराज ने भी इस सम्बन्ध में उचित प्रकाश डाला है उत्तम उद्यम कर, अधम को तज कर, .. . क्षम दम शम वर शुद्ध भाव धरवो । जप तप सत्य दत्त गहत रहत रत्त, तन्त मतभेद तस निरणय करवो । प्राणातिपात असत्य अदत्त ममत अघ, करम-संचय को उद्यम परिहरवो । .. कहत 'तिलोक' एक उद्यम थी भ्रमे जीव, ___एक सुउद्यम सेती भवोदधि तरवो ॥१०॥ वस्तुतः शम, दम, संयम, क्षमा, अहिंसा आदि उत्तम धर्मागों में पुरुषार्थ (उद्यम) करने की ओर पूज्य कविश्रीजी का संकेत है। जितात्माः धैर्य-विजेता धृति पर विजय प्राप्त करने वाला जितात्मा होता है। यह जितात्मा का दूसरा अर्थ होता है । जिस समय आफतों की बिजलियाँ कड़क रही हों, एक से एक बढ़कर संकटों के तूफान आ रहे हों, भाग्याकाश में दुःखों के बादल उमड़-घुमड़कर आ रहे हों, चारों ओर से आलोचना की आंधी आ रही हो, उस समय बड़े-बड़े साधकों के पैर लड़खड़ाने लगते हैं, और वे धर्म के सुदृढ़ सहज सन्मार्ग को छोड़कर सुख-सुविधाओं या प्रलोभनों से भरा प्रेय मार्ग पकड़ने को तत्पर हो जाते हैं। परन्तु जितात्मा वही है जो, संकटों और आफतों के समय अपने स्वीकृत धर्म पर मजबूती से १. त्रिलोक काव्य संग्रह; तृतीय त्रिलोक, अक्षर बावनी, १०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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