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________________ जितात्मा हो शरण और गति-१ च वर्तमान युग के मानव ने अनेक विजय प्राप्त की हैं। प्रकृति की अनेक-अनेक शक्तियों पर वैज्ञानिकों ने विजय प्राप्त कर ली है। जल, स्थल और नभ पर भी वह अपनी विजय का सिक्का जमा चुका है। यंत्रों को अपने वश में कर लिया है, वस्तुओं पर भी कंट्रोल कर लिया। किन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि इतना होते हुए भी क्या वह सुखी है। शान्तिमय जीवन है उसका ? नहीं। इतनी सुख-सुविधाएं होते हुए भी वर्तमान युग का मानव अशान्त है, दुःखी है; क्यों ? जबकि भूतकाल में अल्पसाधन और थोड़ी-सी सुख-सुविधाओं से मनुष्य सुख-शान्ति में जीता था। इसका कारण हैभाज के मानव का जीवन लगाम से विहीन घोड़े जैसा है। वर्तमान युग का मानव संयम की मजाक उड़ाता है। संयम को वह अपने जीवन में स्वेच्छा से स्थान देना नहीं चाहता, बीमार पड़ने या संकट आ पड़ने पर, अथवा फटेहाल हो जाने पर थोड़े में गुजारा चलाना पड़े, वहाँ संयम नहीं है, लाचारी है, विवशता से कम खर्च में चलाना पड़ता है। स्वेच्छा से जहाँ इन्द्रियों, मन, आवश्यकताओं, इच्छाओं, आवेगों आदि पर संयम हो तो उसका जीवन सुख-शान्तिमय हुए बिना नहीं रहता। परन्तु जो व्यक्ति हाय-हाय करता, अभाव से पीड़ित होकर, वासना और कामना को मन में संजोये हुए जीता है, वह तो मजबूरी से अपने पर नियंत्रण करता है, स्वेच्छा से, प्रसन्नता से और उत्साहपूर्वक नहीं। अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश आज भौतिक साधनों की प्रचुरता होते हुए भी सुख-शान्ति से कोसों दूर हैं । अमेरिका में लोगों के पास खाने-पीने, पहनने आदि के साधनों की कोई कमी नहीं है। गेहूँ, मक्का आदि अनाज वहाँ जानवरों को खिलाया जाता है । घी-दूध की नदियां बहतो हैं; किन्तु सुख के साधन होते हुए भी वहाँ के लोग सुखी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ के लोगों में स्वच्छन्दरूप से विषयों का उपयोग करने की प्रवृत्ति है । वहाँ शरीर, मन, इन्द्रियों, आवश्यकताओं, वासनाओं आदि पर कोई नियंत्रण नहीं है, न वे कोई नियंत्रण चाहते हैं, तब सुख-शान्ति कैसे हो ? यहाँ के लोग भी पश्चिम का अनुसरण करके मोह, माया, अहंकार और लोभ आदि आवेगों में फंसे हैं, मानसिक सन्तुलन खो बैठे हैं, इसी कारण मानसिक तनाव यहाँ और वहाँ सर्वत्र बढ़ मया है। स्वैच्छिक संयम को छोड़कर सुख-शान्ति को आशा मृग-मरीचिका जैसी है। आज का पढ़ा-लिखा व्यक्ति असंतुलित हो गया है वह संयम और नियम के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ है। इसीलिए गीता में कहा है जितात्मनः प्रशान्तस्य –प्रशान्त और जितात्मा को ही वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है । असंतुलन और असंयम से मनुष्य को शान्ति नहीं मिल सकती। शान्ति के १. भगवदगीता अ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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