SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जितात्मा ही शरण और गति-१ ३७ झटके में इन्द्रियों और मन की, विषयों और कषायों की दासता की जंजीर काट देता है । वह इन्द्रियों और मन को आत्मगुणों की सेवा में लगाता है। वह वृत्तियों, कषायों, वासनाओं, विषयों को जीतता है, उनके सामने गुलाम बनकर वह रोतागिड़गिड़ाता नहीं, उनके बिना भी वह काम चला सकता है। वह चैतन्य-अग्नि को बुझने नहीं देता। हाँ, तो मैं कह रहा था, जितात्मा बनने के लिए अपने आप पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है । इसके लिए बाह्य शत्रुओं को नहीं, आन्तरिक शत्रुओं को जीतना आवश्यक है । बाह्य शत्रु तो दूसरे हैं, पर ये आन्तरिक शत्रु तो अपने ही हैं । अपनी ही दिशाघ्रष्ट शक्तियाँ आन्तरिक शत्रु हैं । उनका नाश नहीं करना है, क्योंकि उनका नाश करने से हमारी ही शक्तियां नष्ट होंगी। उनकी दिशा बदलनी है, उनका मार्गपरिवर्तन करना है, यही उन पर विजय पाने का तरीका है । उत्तराध्ययन सूत्र में आत्मदमन के लिए कहा गया है अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सही सोइ, अस्सि लोए परत्थ य । वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहि दम्मतो बंधणेहि वहेहि य॥ इनका अर्थ है-आत्मा का ही दमन करना चाहिए; क्योंकि आत्मा ही दुर्दम्य है। दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होती है। अच्छा तो यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं है ।' __प्रश्न होता है, क्या इस प्रकार के दमन से आत्मा पर अपनी आन्तरिक शक्तियों-उन्मार्गगामी शक्तियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है ? इसके उत्तर में हमें प्राचीन वृत्तिकारों के द्वारा इन गाथाओं में उक्त दमन की व्याख्या की ओर झांकना होगा । कोरा दमन कदापि शत्रु को जीतने में सफल नहीं होता, यह वर्तमान मनोपैज्ञानिकों द्वारा सम्मत तथ्य है । आत्मदमन का जो अर्थ आज तक समझा जाता है, वह बदल गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार श्री शान्त्याचार्य ने आत्मदमन का अर्थ किया है-आत्मिक उपशमन । 'शमु दमु उपशमे' इस धातुपाठ के अनुसार शम और दम दोनों धातु उपशम अर्थ में हैं। महाभारत में 'दमन' की सुन्दर परिभाषा मिलती है । देखिए वे श्लोक क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् । इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं च मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ १. उत्तराध्ययनसूत्र अ० १, गा० १५,१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy