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३६ आनन्द प्रवचन : भाग ११
याद रखिये, जब तक मानव अपने छोटे-से केन्द्र-स्व (आत्मा) पर विजय प्राप्त नहीं कर लेगा, तब तक भले ही वह अपनी शक्ति को दिगदिगन्त तक विस्तृत कर दे, फिर भी रहेगा शक्तिहीन ही। अपने आप (स्व) पर विजय प्राप्त करने से ही शक्ति का-परम-शक्ति का आधार मिलता है। आत्मविजय के विना केवल बाह्य पदार्थों या प्रकृति पर विजय से आज तक कोई भी व्यक्ति आनन्द नहीं पा सका। आपको भी वह आन्तरिक विजय प्राप्त करनी है ।
आप पूछेगे हमारी आत्मा तो हमारे पास है ही फिर उस पर विजय प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है ? मैं कहता हूँ-उस पर विजय प्राप्त किये बिना आपका सारा जीवन परतन्त्र, इन्द्रियों और मन का गुलाम, कषायों का वशवर्ती और विषयों का दास बन जाएगा। क्या आपको पता है, आपकी आत्मा कहाँ-कहाँ, कसेकैसे पराजित होती है ? बाहर से विजय का डंका बजते रहने पर भी आप अपने अन्दर से कितने हारे हुए हैं ? जिनकी विजय-पताका (बाहर से) उड़ रही है, उनकी थोड़ी-सी भी आन्तरिक विजय है ? आप अपने अन्तर में डबकी मारकर देखेंगे तो पता चलेगा कि अन्दर तो सिर्फ हार है, पद-पद पर आप हारते हैं।
___ आप जरा-से क्रोध पर नियन्त्रण नहीं रख सकते । अभिमान का सर्प जरा-सा छेड़ने से फुफकार उठता है । लोभ के वशीभूत होकर दिन में कई बार अपने जरा से स्वार्थ के लिए लोग बेईमानी, ठगी, नाप-तौल में गड़-बड़, हेरा-फेरी आदि कर बैठते हैं। अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए छल-कपट, दगा, धोखा आदि करते जरा भी नहीं हिचकिचाते। जरा-सी कामवासना की लहर आई कि आप फिसल जाते हैं । जरा-सी तुच्छ वस्तु के मोह में आप पागल हो उठते हैं। पैसे और पद के लिए राष्ट्रद्रोह, समाजद्रोह, ग्रामद्रोह आदि करने से नहीं चूकते। मतलब यह है कि वर्तमान युग का मानव प्रायः काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग-द्वष, कपट, अहंकार आदि मानसिक विकारों का गुलाम बना हुआ है । वह इनसे बार-बार हारता है। बाहर से भले ही वह राजा, बादशाह या लखपति-करोड़पति सेठ बना हुआ हो, परन्तु अन्दर से वासनाओं के वेग में यन्त्र की तरह पिसता जाता है। इतनी पराधीनता है कि मनुष्य की स्थिति यन्त्र की तरह है। अपना ही मन है, लेकिन आत्मा उसका मालिक नहीं है, इन्द्रियाँ अपनी ही हैं, लेकिन आत्मा के नियन्त्रण में वे नहीं हैं, आत्मा पर मन और इन्द्रियाँ विजयी बनकर हावी हो गये हैं। आत्मा को तो केवल उनकी हाँ में हाँ मिला देनी होती है । इन्द्रियाँ और मन मिलकर जिधर आत्मा को बहा ले जाएं, उधर बहना पड़ता है । चेतन आत्मा को इन अचेतन मन के आवेगों एवं कषाय के आवेशों के सामने बार-बार झुकना पड़ता है, इन्द्रियविषयों के अधीन हो जाना पड़ता है । मन और इन्द्रियों तथा इनके विषय-विकारों के सामने बार-बार हार खानी पड़ती है। अचेतन वेग तथा प्रवाह और भौतिक आकर्षण आत्मा को खींच ले जाते हैं । भौतिक आकर्षण के अंधड़ के सामने आत्मा की कुछ भी नहीं चलती। भौतिक पदार्थों की वासना मालिक और आत्मा उसका गुलाम बन जाता है।
जितात्मा साधक इस पराधीन स्थिति को सहन नहीं करता। वह एक ही
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