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जितात्मा ही शरण और गति-२
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आशय यह है कि जितात्मा पुरुष अपनी आत्मा के शत्रुभूत जो क्रोधादि कषाय हैं, या इन्द्रिय-विषय हैं, उनकी ओर जाती हुई अपनी आत्मा को किसी भी प्रकार से रोकता है, या उसकी दिशा बदल देता है, आत्मगुणों की दिशा में उसे अभिमुख कर देता है।
यह बहुत सम्भव है कि कोई सारे जगत को जीत ले परन्तु जहाँ तक वह अपने आप को नहीं जीत लेता, तब तक सच्चे माने में वह उसकी जीत नहीं है; वह अन्दर से हारा हुआ है-पराजित है । उसकी बाह्य विजय दूसरों को धोखा दे सकती है, पर अपने आपको नहीं । अपने आपको जीतना ही सच्ची विजय है, उसी विजय का आनन्द सच्चा आनन्द होगा। केवल बाह्यविजय के आनन्द से काम नहीं चलेगा। अपने आप पर विजय पाये बिना केवल बाह्यविजय तो पराजय में बदल जाती है, सभी उपलब्धियाँ शून्य बन जाती हैं।
मानव अपनी आँखों में कब तक धूल झौंक सकता है ? यदि आपको सब कुछ मिल जाये किन्तु मिले अपने आपको खोकर तो क्या आप उसे पसन्द करेंगे ? यह सौदा कितना महंगा पड़ेगा ? यह तो हीरा खोकर पत्थर खरीदने जैसा है। बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि जो अपने आपको खो बैठता है, वह सभी बाह्य पदार्थों की प्राप्ति के धोखे में सब कुछ खो देता है। सचमुच, अपने आपको खोना सर्वस्व खोना है । 'स्व' केन्द्र में न हो तो संसार के सारे पदार्थों की उपलब्धि का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि जो अकेले 'स्व' में छिपा है, उसकी पूर्ति दुनिया के समस्त पदार्थ एकत्र करने पर भी नहीं हो सकती। 'स्व' (आत्मा) से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं है। इसी की उपलब्धि से संसार की समस्त वस्तुएं उपलब्ध हो सकती हैं और इस अकेले को खोने से दुनिया की वस्तुएं खो जाती हैं । स्व एक है, दुनिया के सारे पदार्थ शून्यवत् हैं। शून्य चाहे जितने हों, कोरे शून्यों की तब तक कोई कीमत नहीं होती, जब तक कि एक का अंक उनके पूर्व न लगे । वास्तव में स्व (आत्मा) ही एकमात्र सम्पत्ति है, वही हमारी आन्तरिक शक्ति है।
याद रखिए, जब तक मनुष्य अपने आपको प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक दूसरी सब वस्तुओं को प्राप्त करने का दावा व्यर्थ है। सच्ची समझ की प्राप्ति अपने आप की प्राप्ति में से प्रारम्भ होती है, यही जाति का प्रारम्भ है । परन्तु आज तो 'दिया तले अंधेरा' वाली कहावत प्रायः चरितार्थ हो रही है । दीपक सबको प्रकाश देता है, लेकिन स्वयं के नीचे अंधेरा रखता है, वैसी स्थिति आज दिखाई दे रही है। वर्तमान युग में मानव की शक्ति विस्तीर्ण होती जा रही है, लेकिन मानव स्वयं शक्तिहीन होता जा रहा है । कितना विरोधाभास है यह ! आज मनुष्यों की बाह्य शक्ति तो बढ़ी है, लेकिन आन्तरिक शक्ति से वे क्षीण होते चले जा रहे हैं । भौतिक पदार्थों में लोगों की गति बढ़ी है, लेकिन आध्यात्मिक जीवन में वे शक्तिहीन-गतिहीन-से हो रहे हैं । पदार्थों को जानने में हमने अपनी सारी शक्ति लगा दी, परन्तु अपने आप को जानने का कोई ध्यान ही न रहा ।
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