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६२. जितात्मा ही शरण और गति-२ धर्मप्रेमी बन्धुओ !
___ आज मैं पुनः कल वाले विषय पर चर्चा करूंगा । जितात्मा का जीवन हर पहलू से विचारणीय है। जब तक मनुष्य जितात्मा नहीं बनता, तब तक उसका जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय, प्रेरणादायक एवं शरणदाता नहीं बन सकता । इसीलिए महर्षि गौतम ने मनुष्य-जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए यह जीवनसूत्र प्रस्तुत किया है
अप्पा जिअप्पा सरणं गई अ आइए, जितात्मा के अन्य अर्थों पर विचार कर लेंजितात्मा : आत्मजयी
एक दिन भ० पार्श्वनाथ स्वामी की परम्परा के श्री केशीकुमार श्रमण के प्रश्न का उत्तर भ० महावीर के पट्टधर शिष्य गणधर श्री गौतमस्वामी ने दिया था, जो कि उत्तराध्ययनसूत्र में अंकित है
एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि अ।
ते जिणित्त जहानायं, विहरामि अहं सुणी !॥ -कषायों और इन्द्रियों से युक्त बिना जीता हुआ एकमात्र आत्मा ही शत्रु है, उसे जीतकर मैं यथाज्ञात दशा में विहरण करता हूँ।
लोकव्यवहार में जिस प्रकार युद्ध में मुख्य शत्रु प्रतिपक्षी राजा या उसका सेनापति माना जाता है । उसे जीत लेने पर सारी सेना जीत ली गई, ऐसा समझा जाता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में एक आत्मा को जीत लेने पर कषाय और इन्द्रियां आदि सब पर विजय प्राप्त हो गई, ऐसा समझा जाता है। इसलिए यहाँ जितात्मा का एक अर्थ यह किया गया है कि अपनी आत्मा पर विजय पाने वाला, अपने आप पर विजयी बनने वाला।
वैसे तो आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही शत्रु है । मित्र तब है, जब वह कषायों और इन्द्रियविषयों के चक्कर में नहीं पड़ता, किन्तु जब वह कषायों, विषयों आदि के चक्कर में फंस जाता है, अपने स्व-भाव से विपरीत दिशा में चलता है, तब शत्रु बन जाता है । ऐसे शत्रु बने हुए आत्मा को जो जीत लेता है, अपने पर हावी नहीं होने देता, वही आत्मजयी जितात्मा है ।
१. उत्तराध्ययन सूत्र २३/३८
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