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________________ देव आनन्द प्रवचन : भाग ११ अकार्पण्यासंरम्भः सन्तोष: प्रियवादिता । अविहसानसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥ १६ ॥ - क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलता, इन्द्रियजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, अचपलता (स्थिरता), उदारता, क्रोधहीनता, संतोष, प्रियवचन बोलने का स्वभाव, किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरों के दोष न देखना ( अनसूया ) इन सब सदगुणों का उदय होना ही दम है । इसी सन्दर्भ में महाभारत में 'दान्त' का अर्थ भी उपशान्तपरक ही किया गया है— - गुरुपूजा च कौरव्य ! दया भूतेष्वपैशुनम् । जनवादं मृषावादं स्तुतिनिन्दाविसर्जनम् ॥१७॥ कामं क्रोधं च, लोभं च दर्पं स्तम्भं विकत्थनम् । रोषमीयविमानं च नंव दान्तो निषेवते ॥ १८ ॥ - हे कुरुनन्दन ! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति भक्ति, प्राणियों के प्रति दया, तथा किसी की चुगली न खाने की प्रवृत्ति होती है । वह जनापवाद, असत्यभाषण, किसी की निन्दा - स्तुति ( चापलूसी) में पड़ने की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, अभिमान, डींग हाँकना, रोष, ईर्ष्या, दूसरों का अपमान- इन दुर्गुणों का कभी सेवन नहीं करता । 2 वास्तव में, आत्मदमन से आत्मविजय हो सकती है, बशर्ते कि महाभारत एवं शान्त्याचार्य की व्याख्या के अनुसार दमन का अर्थं आत्मोपशमन-परक लिया जाये । आत्मदमन की जब यह परिभाषा मान ली जाती है, तो आत्मा की विरोधी और मार्गभ्रष्ट बनी हुई उन शक्तियों को जीतना बहुत ही आसान हो जाता है । जैसे - एक नदी में भयंकर बाढ़ आती है, उसके जल से लाभ के बदले धन-जन की हानि ही होती है । ऐसी स्थिति में कोई इंजीनियर नदी के उस व्यर्थ बहकर विनाशकारी बनने वाले जल-प्रवाह को मोड़कर विविध नहरों के द्वारा खेतों में पहुँचा देता है, तब वह जीवनदायी बन जाता है । इसी प्रकार जितात्मा अपनी उन विनाशकारिणी एवं उन्मार्गगामिनी शक्तियों, वेगों एवं वृत्तियों के प्रवाह की दिशा बदलकर उन्हें विकासकारी एवं सन्मार्गगामी बना देता है । तब वे शत्रु के बदले मित्र बन जाती हैं । इस प्रकार की विजय ही सच्ची आत्मविजय है । महाभारत में बताई गई आत्मदमन की परिभाषा के अनुसार भी आत्मा की उन्मार्गगामिनी वृत्ति प्रवृत्तियों को क्षमा, दया, सत्यता, सरलता, धीरता, मृदुता, आदि विविध अभीष्ट प्रवृत्तियों की ओर मोड़ १. महाभारत, आपद्धर्मपर्व, अ० १६०, श्लोक १५-१६ । २. महाभारत, आपद्धर्मपर्व, अ० १६०, श्लोक १७-१८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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