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________________ आत्मा ही शरण और गति २ ३६ दिया जाता है तो वे पहले जो आत्मा के नियंत्रण से बाहर थीं, अब आत्मा के नियंत्रण में हो जाती हैं । निष्कर्ष यह है कि शत्रु बनी हुई आत्मा की इन उन्मार्गगामिनी आन्तरिक शक्तियों का विनाश नहीं, परिवर्तन करना है; उन्हें नया मोड़ देना है । जैसे- बंजर खेत में खाद और मिट्टी बदलने से वह उपजाऊ बन जाता है, वैसे ही आत्मशक्ति का क्षय करने वाली इन आन्तरिक वृत्ति प्रवृत्तियों - शक्तियों को सदगुणों की खाद देने से ये उपयोगी तथा आत्मशक्ति का विकास करने वाली बन जाएंगी। इनसे ही फिर आत्मा तेजस्वी और वीतरागत्व का आधार बन सकेगी । यही आत्मविजयी बनने का रहस्य है । अपने आप पर या अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करने का अर्थ आत्मा को दबाना, सताना या उससे लड़ना नहीं है, परन्तु विपरीत-पथगामिनी आत्मा की आन्तरिक शक्तियों के साथ मैत्री करके उन्हें सन्मार्गगामिनी बनाना है । तभी वह आत्मविजेता बन सकता है। वास्तव में देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति में शक्ति का विपुल प्रवाह भरा है, किन्तु वह भान भूलकर विषयासक्ति, वासना, कषायवृत्ति आदि उन्मार्गों में अपनी उस शक्ति को बहा देता है, या बहने देता है । धीरे-धीरे वे उन्मार्गगामिनी शक्तियाँ उस पर हावी हो जाती हैं । फिर दूसरी भूल वह यह करता है कि वह उन उन्मार्गगामिनी शक्तियों का बिलकुल निरोध या विरोध करता है, किन्तु केवल निरोध या विरोध से वे काबू में नहीं आतीं । बाहर से दिखाई देता है कि उन पर विजय प्राप्त हो गई है, परन्तु अन्दर में वे अपना अड्डा जमाए रहती हैं, कोई न कोई निमित्त मिलते ही वे पुनः उभर आती हैं । इसलिए आत्मविजय का यह तरीका ठीक नहीं है; सही तरीका है— प्रवाह परिवर्तन का, अर्थात् उन शक्तियों - अपने में रही हुई वृत्ति प्रवृत्तियों के साथ परिचय करना, उनकी उपयोगिता जानना, फिर उनसे मैत्री करके उनके प्रवाह को मोड़ना, उन्हें सहयोगी बना लेना; यही आत्मविजय का यथार्थ क्रम है । जितात्मा : अपने गुणों से परमात्मतत्त्व को जीतने वाला जिस प्रकार एक अच्छा खिलाड़ी खेल में अपनी योग्यता, क्षमता और कुशलता से विजय पा लेता हैं, उसी प्रकार विजित आत्मारूपी खिलाड़ी भी अपनी योग्यता, क्षमता, कुशलता एवं उत्तमोत्तम गुणों की वृद्धि से अपने तन-मन के साथ होने वाले खेल में जीतकर परमात्मतत्त्व को पाने का हकदार हो जाता है । वह सांसारिक प्रलोभनों और आकर्षणों में नहीं फँसता, कषायों और विषयों के मायाजाल से दूर रहता है । अपने तन, मन, बुद्धि, शक्ति, इन्द्रियों आदि को यथायोग्य कार्यों में लगा देता है, जिससे उसे इस लुभावने मायाजाल में फँसने का मौका ही नहीं मिलता । आद्य शंकराचार्यजी अपनी माता के इकलौते पुत्र थे । माता ने सन्तान प्राप्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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