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________________ १. मानन्द प्रवचन : भाग ११ के लिए शिवजी की उपासना की । उपासना के पश्चात् जब सन्तान-प्राप्ति हुई तो उसका नाम 'शंकर' रखा । शंकराचार्य की माता भी अन्य माताओं की तरह मन में यही कल्पना संजोये हुई थी कि मेरा शंकर कुछ ही वर्षों में जब बड़ा हो जाएगा तो मैं उसका विवाह करूंगी । बहू घर में आएगी। कुछ ही वर्षों में मेरा घर नाती-पोतों से भरा-पूरा हो जाएगा। बहू की सेवाओं से तृप्ति होगी। जीवन की अन्तिम घड़ियाँ सुख-शान्ति और सम्पन्नता में व्यतीत होंगी। ज्यों-ज्यों शंकर बड़े होते जाते, माता का यह स्वप्न और भी तीव्र होता जाता। .. परन्तु जन्म से ही प्रतिभासम्पन्न तथा पूर्वजन्म के संस्कारों से परिपूर्ण शंकर का ध्यान परमात्म-प्राप्ति में लगा रहता था । वह इसके लिए जप-ध्यान, पूजा-पाठ, तप, सेवा आदि में ही अधिक समय लगाता था । वे अपनी प्रतिभा स्वयं को सांसारिक मायाजाल में फंसाकर नष्ट नहीं करना चाहते थे। उधर माता अपने बालक की प्रवृत्ति संसार के मोहजाल से विरक्त-सी देखकर खिन्न होती थी और यही समझाया करती थी कि विवाह करना, घर-गृहस्थी संभालना और आजीविका कमाना सुपुत्र का धर्म है। . शंकर को अपनी माता के प्रति अगाध श्रद्धा थी। वे माता का पूरा सम्मान करते थे, उनको सेवाशुश्र षा में रंचमात्र भी कमी नहीं आने देते थे । फिर भी उनकी अन्तरात्मा यह नहीं मानती थो, कि सांसारिक मोहजाल में फंसने की मोहग्रस्त माता की बात को स्वीकार कर लिया जाये। माता की ममता का मूल्य बहुत है, लेकिन विश्वमाता-परमात्मा की गोद में बैठने का मूल्य उससे भी अधिक है । उनके विवेक ने कहा-बड़े के लिये छोटे का त्याग उचित है । अन्तरात्मा ने परमात्मा की अन्तरंग प्ररणा का अनुभव किया और उसी को परमात्मा का निर्देश मानकर विश्वमाता-परमात्मा को प्राप्त करने तथा उसके लिए विश्वसेवा करने का निश्चय किया । पर माता को कोई कष्ट न हो, उनकी स्वीकृति भी मिल जाए, ऐसा उपाय उनके मस्तिष्क में गूंजने लगा। एक दिन माता-पुत्र दोनों नदी में स्नान करने साथ-साथ गये । माता तो किनारे पर ही खड़ी रही, पुत्र उछलता-कूदता गहरे पानी तक चला गया। वहां अचानक चिल्लाया-"बचाओ, बचाओ ! मुझे मगर पकड़कर ले जा रहा है।" किसी जलजन्तु ने उनकी टाँग पकड़ ली थीं । माता बेटे की पुकार सुनकर घबराई । वह किंकर्तव्यविमूढ-सी हो रही थी कि शंकर ने माता से कहा-"मां अब मेरे बचने का एक ही उपाय शेष है, तुम मुझे भगवान् शंकर को समर्पित कर दो, उनकी कृपा से मेरी प्राणरक्षा हो सकती है ।" माता को यह निर्णय करने देर न लगी कि मर जाने की अपेक्षा तो संन्यासी बनकर जीवित रहने का मूल्य अधिक है। उन्होंने शंकरजी से प्रार्थना की-“मेरा पुत्र यदि मगर के मुख से निकल आये तो मैं उसे आपको समर्पित कर दूंगी।" यह सुनकर पुत्र की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वह धीरे-धीरे किनारे पर आगया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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