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________________ जितात्मा ही शरण मोर नति-२ ॥ ... इस प्रकार विश्वमाता परमात्मा की प्राप्ति की धुन ने और विश्वसेवा की निष्ठा ने मोहममता पर विजय पाई । किशोर शंकर--संन्यासी शंकराचार्य के रूप में भारत में भ्रमण करने लगे। उन्होंने अपनी सारी शक्ति तथा सभी अंगोपांगों को शुद्ध आत्म-सेवा या परमात्मसेवा में लगा दिया । अपने जीवन को उत्तमोत्तम मुणों से सम्पन्न बनाया। विजितात्मा के इस अर्थ पर हम एक दूसरे पहलू से विचार करें। जैसे शरीर और मन की भूख-प्यास है, वैसे ही आत्मा की भी भूख-प्यास है । साधारण मनुष्य को शरीर और मन की भूख-प्यास का तो प्रायः प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है, लेकिन आत्मा की भूख-प्यास का अनुभव किसी विरले को हुआ करता है । आत्मा की भूख, प्यास या मांग है-परमात्मा से मिलन, परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार । यह शुद्ध आत्मा का स्वभाव है। ऐसे व्यक्ति को, जिसे परमात्म-प्राप्ति की भूख-प्यास लगी है, जीवन में एक प्रकार की तड़फन, तीव्रता और लगन होगी, भले ही किसी समय उसकी अनुभूति बहुत ही मन्द हो, किसी समय तीव्र हो; पर होती अवश्य है । उसे ऐसा लगा करता है, मानो जीवन में कुछ खो गया है, जो अभी तक मिला नहीं है। क्या खोया है ? कैसे खोया है ? इसका पता उसे प्रारम्भिक दशा में नहीं होता। परन्तु एक अज्ञात व्यथा मन में होती रहती है। सब कुछ मिल जाये, फिर भी उसे लगेगा कि अभी रिक्तता है, खालीपन है। आत्मा की भूख-प्यास जब मिट जाती है, तब परमात्मतत्त्व पर अधिकार हो जाता है। यही जितात्मा का एक लक्षण है। ऐसा जितात्मा परमात्मतत्त्व से बाह्य अथवा परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में अवरोधक तत्त्वों से बिलकुल अनासक्त, निलिप्त रहता है । वह एकमात्र ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो जाता है अथवा उसमें परमात्मा और जीवात्मा के ऐक्य का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इसे ही वेदान्त की भाषा में समाधि कहते हैं । ऐसा जितात्मा नित्यतृप्त हो जाता है। जितात्मा : शरीर, इन्द्रियों एवं मन का विजेता जितात्मा का यह अन्तिम और महत्वपूर्ण अर्थ है । इस अर्थ में तीन अर्थ गर्भित है (१) शरीरविजयी, (२) जितेन्द्रिय और (३) मनोविजेता। यद्यपि शरीर और इन्द्रियां मन के अनुसार ही चलती हैं, मन ही इनका कमांड करता है तथापि पृथक-पृथक् स्पष्टतः समझने के लिए, इन तीनों का अलग-अलग निर्देश किया जाता है । एक मनोविजेता कहने से शेष दोनों का इसमें समावेश हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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