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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ समग्र जीवन का गुरु मन है । यह क्रियाशील और विकासशील है। उसमें जीवन को बदलने की शक्ति है। मन के बिना इन्द्रियाँ विषयों का उपभोग नहीं कर सकतीं। जिसे सद्यः पुत्रशोक हुआ हो, वह यदि सिनेमा देखे तो उसके सामने पुत्र का दृश्य आता है, सिनेमा के दृश्यों का उसे ध्यान ही नहीं रहता । मन अस्वस्थ होने पर न खाना खाया जाता है और न ही सोया जाता है। इसलिए मन मानवजीवन का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। मन मनुष्य को भगवान् भी बना सकता है, शैतान भी और हैवान (पशु) भी। उसमें सर्वत्र गमन की शक्ति है । मन में मुख्यतया नो गुण महाभारत में बताये गये हैं-(१) धैर्य, (२) तर्क-वितर्क में कुशलता, (३) स्मरण, (४) भ्रान्ति, (५)कल्पना, (६) क्षमा, (७-८) शुभ-अशुभ संकल्प, और (8) चंचलता।' विज्ञान के अनुसार प्रकाश का वेग एक सैकंड में १ लाख ८६ हजार मील है, विद्युत् का वेग है-२ लाख ५८ हजार मील; जबकि विचारों का वेग २२ लाख ६५ हजार १२० मील है।' कोई भी यान इतना द्रुतगामी नहीं है, जितना मनोयान है। कोई भी भौगोलिक राज्य इतना बड़ा नहीं है जितना मनोराज्य है । इसकी ग्रन्थियों को खोलकर फैलाया जाये तो छहों महाद्वीपों में नहीं समा पाती । इस छोटे-से शरीर में मन की असंख्य ग्रन्थियों का पिण्ड बहुत ही आश्चर्यजनक है। चरकसंहिता में मन के ये विषय बताये हैं(१) चिन्त्य—यह करने योग्य है या नहीं-इसका चिन्तन करना, (२) विचार्य-इस कार्य से लाभ है या अलाभ-यह विचार करना, (३) ऊह्य-यह कार्य ऐसे होगा, ऐसे क्यों नहीं-इस प्रकार तर्क करना, (४) ध्येय-किसी कार्य के विषय में दीर्घ चिन्तन-ध्यान करना, (५) संकल्प्य यह दोषयुक्त है यह दोषमुक्त, यों निश्चय करना, (६) ज्ञेय-सुख-दुःख आदि का ज्ञान करना। हमें तारने वाला भी मन है और डुबाने वाला भी मन ही है। हमारा मन जब अन्तर की ओर झांकता है, तब हम तर जाते हैं । कलह, क्लेश आदि क्या हैं ? ये मन के बाहर झाँकने के प्रकार हैं । मन जब बहिर्मुखी होकर देखता या उपर्युक्त कार्य करता है, तभी ईर्ष्या, द्वेष, मोह, अहंकार, कलह, क्लेश आदि उत्पन्न होते हैं। यों १. धैर्योपपत्ति व्यक्तिश्च, विसर्गः कल्पनाक्षमा । सदसच्चाशुता चैव मनसो नव वै गुणाः ॥ -महाभारत, शान्तिपर्व, २५५/६ २. सामायिकसूत्र (भाष्य) पृ० ५५ ३. चिन्त्यं विचार्यमूह्य च, ध्येयं संकल्प्यमेव च । यत्किचिन्मनसो ज्ञयं, तत्सर्वं ह्यर्थसंज्ञकम् ।।-चरकसंहिता, शरीरस्थान १/२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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