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जितात्मा ही शरण और गति -२ ४३
तो मन की असंख्य ग्रन्थियाँ हैं और वे मुकुलित रहती हैं। सामग्री का योग मिलने पर ही उनके तार खुलते हैं । सामग्री के योग से मन की अनेक ग्रन्थियाँ संकुचित और अनेक विस्तृत होती हैं । संक्षेप में राग और द्वेष इन दो में मन की असंख्य ग्रन्थियाँ समाविष्ट हो जाती हैं ।
सभी अपने मन के संकल्प से ही छोटे-बड़े बनते हैं । वस्तु पर अच्छेपन या बुरेपन की छाप मन लगाता है । कार्य की सिद्धि होगी या असिद्धि – यह भी मन के उत्साह - अनुत्साह से ज्ञात हो जाता है । मन से किया हुआ कार्य ही वस्तुत: किया हुआ है, शरीर से किया हुआ नहीं। मन में ही इतनी शक्ति है कि वह निजरुचि या संकल्प से स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बना सकता है । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन से ही सातवें नरक तथा छब्बीसवें स्वर्ग में जाने की तैयारी कर ली । तन्दुलमत्स्य मन के दुःसंकल्प के कारण अन्तर्मुहूर्त की आयु में ही सातवीं नरक की यात्रा कर लेता है । मनोभावना का प्राकृतिक पदार्थों पर भी प्रभाव पड़ता है, पेड़-पौधों पर तो पड़ता ही है, जल पर भी पड़ता है । एक बार तीन व्यक्तियों ने पौधों पर जल सींचा। एक के सींचे हुए पौधे कुम्हला गये, दूसरे के सींचे हुए पौधे लहलहा उठे, और तीसरे के सींचे हुए पौधे मूलरूप में रहे । वैज्ञानिकों ने तीनों के मन का अध्ययन किया, उससे पता चला कि पहले व्यक्ति के मन में पानी सींचते समय क्रूरता थी, दूसरे के मन में करुणा एवं मंत्री की भावना थी, जबकि तीसरे के मन में न क्रूरता थी और न करुणा ।
श्रीमद्भागवत में मन को ही सुख-दुःख का मुख्य कारण बताया गया है—
नाsयं जनो सुखदुःख हेतुनं देवतात्मा ग्रह-कर्म- कालाः ।
मनः परं कारणमामनन्ति, संसारचक्रं परिवर्तयेद् यत् ॥'
- मेरे सुख-दुःख के कारण न तो ये मनुष्य हैं, और न देवता, न शरीर है, और न ग्रह, कर्म या काल आदि हैं । मन ही सुख-दुःख का कारण माना गया है, क्योंकि यही संसारचक्र को चला रहा है ।
देवी भागवत में भी मन की पवित्रता - अपवित्रता पर सारे पदार्थों का परिणाम निर्भर है, यह सूचित किया गया है
मनस्तु सुखदुःखानां महतां कारणं द्विज ! जाते तु निर्मले ह्यस्मिन्, सर्व भवति निर्मलम् ॥'
- द्विजवर ! मन ही महान् दुःखों का कारण है । इसके निर्मल होने पर सम कुछ निर्मल हो जाता है । मन निर्मल न हो तो सभी क्रियाएँ निरर्थक और निष्फल हो जाती हैं ।
१. श्रीमद्भागवत ११ / २३/४३ २. देवीभागवत १ / १५
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