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मानन्द प्रवचन : भाग ११
इसलिए मन को बन्ध और मोक्ष का कारण बताया गया है
बन्धाय विषयासक्त, मुक्त्यै निविषयं मनः ।
मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः ॥ -मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण न तो शरीर है, न इन्द्रियां हैं और न ही जीवात्मा है । वस्तुतः विषयासक्त मन ही मनुष्य के लिए बन्धजनक होता है और विषयमुक्त मन होता है मुक्ति के लिए । अतः बन्ध और मोक्ष का कारण मनुष्यों का मन ही है।
इसी मन पर विजय प्राप्त करने वाला व्यक्ति विजितात्मा कहलाता है। परन्तु मन तो बड़ा ही चंचल, जिद्दी और हठी है, इस पर नियंत्रण करना बड़ा ही कठिन काम है । बड़े-बड़े योगी इस कार्य में असफल हो गये। एक दिन अर्जुन जैसे जिज्ञास भक्त ने भी कर्मयोगी श्रीकृष्ण के समक्ष मनोनिग्रह की दुष्करता प्रस्तुत की थी
चंचलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम् ।
तस्याऽहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ॥
-हे कृष्ण ! मन तो बड़ा चंचल, बलवान, जिद्दी और सुदृढ़ है, मैं तो उसका निग्रह हवा को पकड़ने की तरह अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ। मनोविजय का मतलब ही है- मन का निग्रह करना, मन को वश में कर लेना, बहुत ही कठिन काम है यह !२
मन को अपने वश में करने का तात्पर्य है-'जा' कहते ही वह चला जाये और 'आ' कहते ही वह उपस्थित हो जाये । इसी प्रकार का आज्ञाकारी सेवक हो जाये तभी समझा जाएगा कि मन अपना हो गया है। किसी सेठ के सामने उसका नौकर खड़ा हो और उस समय सेठ किसी दूसरे आदमी से बातचीत करना चाहता हो तो वह नौकर की ओर देखता है । नौकर फौरन समझ जाता है कि सेठ प्राइवेट बातचीत करना चाहता है इसलिए नौकर वहाँ से अन्यत्र चला जाता है, और पुनः जरा सा संकेत पाते ही आकर उपस्थित होता है । इसी प्रकार मन को भी अभ्यास और वैराग्य से प्रशिक्षित और नियंत्रित करना पड़ेगा, तभो मनोविजय कहलायेगा।
दूसरी बात यह है कि मन विषयों और कषायों के सम्पर्क से इतना मलिन हो जाता है कि उसका आत्मा की आज्ञा में रहना कठिन हो जाता है। अतः मन की शुद्धि के बिना, वह सरल नहीं बनता और सरल बने बिना वह आज्ञाकारी और आत्माधीनस्थ नहीं बनता है । जब तक मन वैसा नहीं बनता, तब तक व्यक्ति मनोविजेता नहीं कहलाता । ज्ञानार्णव में बताया गया है
१. चाणक्यनीति १३/१२ २. भगवद्गीता ६/३४ ३. अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। -पातंजल योगदर्शन १/१२ ।
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