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जितात्मा ही शरण और गति–२ ४५ मनःशुद्ध यैव शुद्धिः स्यात्, देहिनां नात्र संशयः ।
वृथा तद्व्यतिरेकेण, कायस्यैव कदर्थनम् ॥१ “इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्राणियों के मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। उसके बिना केवल शरीर को कष्ट देना व्यर्थ है।"
जब तक मन मैला है, तब तक तन का श्रृंगार करना व्यर्थ है। संत कबीर ने तो स्पष्ट कह दिया
मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर ।
मन के मते न चालिए, पलक-पलक मन और ।।
गणधर गौतम स्वामी से केशीकुमार श्रमण ने भी जब मनोनिग्रह के विषय में पूछा तो उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में उत्तर दिया
मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई ।
त सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥
-मन ही साहसिक एवं भयंकर दुष्ट घोड़ा है जो चारों ओर दौड़ता है, लेकिन मैं उस कंथक घोड़े को धर्मशिक्षा से काबू में करता हूँ।3..
अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वह मनरूपी घोड़ा प्रशिक्षित किया जा सकता है। परन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि वर्तमान युग का मानव और अनेक बातों का प्रशिक्षण लेता है, लेकिन मन को प्रशिक्षित करने के सम्बन्ध में प्रायः विचार नहीं करता, वह ऐसे प्रशिक्षण को अनावश्यक समझता है ।
मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थी-एक राजा ने एक बार सात जंगली घोड़े पकड़वाकर मंगाये। वर्षभर उन्हें खूब खिला-पिलाकर मोटे-ताजे बना दिये, उनसे कुछ भी काम न लिया गया। फलतः वे स्वच्छन्दी घोड़े बहुत ही ताकतवर और साथ ही खतरनाक हो गये। उन्हें तबेले में बाँधना और खोलना भी कठिन हो गया। यहां तक कि उन घोड़ों के पास जाना भी खतरे से खाली नहीं था। अतः राजा ने राज्यभर में ढिंढोरा पिटवाया कि जो सात मनुष्य इन सात घोड़ों पर सवारी कर लेंगे, उनका बहुत सम्मान किया जायेगा और अपनी सेना में उनको अधिकारी नियुक्त किया जायेगा। इनमें से जो सर्वप्रथम आयेगा, उसे घुड़सवार सेना का सेनापति बनाया जायेगा । यह घोषणा सुनते ही बहुत से लोग उन घोड़ों को देखने आये पर देखते ही उनके छक्के छूट जाते । फिर ७ बहादुरों ने यह बीड़ा उठाया। राजा ने प्रतियोगिता का दिन, समय और दूरी की सीमा तया वापस लौटने की अवधि आदि सब बातें निश्चित कर दीं। सौ मील तक घोड़ों पर सवार होकर जाना था, ७ दिन में वहां तक पहुँचकर वापस लौटने की शर्त थी। सात दिनों में जो सवार घोड़े के साथ सहीसलामत पहुँच जायेगा, उसे विजयी माना जाएगा।
२. कबीर दोहावली
१. ज्ञानार्णव पृ० २३४ ३. उत्तराध्ययन सूत्र २३/५०
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