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________________ चुगलखोर का संग बुरा है २११ ऐसे अशुभसूचक शब्द कहे तो ! भला मेरे बेटे राम को राजगद्दी मिलेगी, इसमें क्या अमंगल होगा ? " मंथरा यह सुन जोर-जोर से रोने लगी और कहने लगी- 'अयोध्या का राजा कोई भी बने मेरा क्या नुकसान है ? मैं तो दासी की दासी ही बनी रहूँगी, रानी नहीं बन जाऊँगी ! पर मैं तो तुम्हारे हित की बात कहती थी, तुम्हें नहीं सुहाती तो न सही । " मंथरा के इस मायाजाल को भोली-भाली कैकेयी रानो न समझ पाई, वह बोली - " अच्छा यह बता, राम को राजगद्दी मिलेगी, इसमें मेरा क्या अमंगल होगा ? " मंथरा बहुत कुछ मनाने पर बोली - "राम को राजा बनाया जायेगा, तब राजमाता कौशल्या बनेगी, आपको तो उसकी टहल-चाकरी करने वाली दासी की तरह रहना होगा ।" कैकेयी - " इसमें क्या हुआ ? कौशल्या रानी की सेवा करने में मुझे बड़ा आनन्द आयेगा । और कोई बात हो तो बता !” - मंथरा ने पैशुन्य करते हुए कहा - " तुमको क्या पता राजा के राजनीतिक षड़यंत्र का ? राम को राजगद्दी देने के पीछे क्या रहस्य है, क्या तुम इसे जानती हो ?" कैकेयी ने आश्चर्य से कहा - " मैं तो नहीं जानती, तू ही बता ।" मंथरा बोली- मैं क्या बताऊँ ? मुझे तो इसमें बहुत बड़ी खटपट मालूम होती है । राम और राजा दशरथ दोनों ऊपर से तो तुमसे प्रसन्न होकर मीठा-मीठा बोलते हैं । अन्दर से दोनों की मिली भगत है । हृदय में दोनों के सरलता नहीं है । अगर राम को राज्याभिषेक करना था, तो भरत को ननिहाल से बुलाना था, तुमसे और उससे भी परामर्श करना था, परन्तु सोचा होगा—तुम दोनों से सलाह लेंगे तो तुम दोनों इस बात का विरोध कर बैठो । यही कारण है कि न तो भरत को ननिहाल से बुलाया और न ही तुम्हें पूछा । यह है बाप-बेटों की राजनैतिक चाल ।” कैकेयी अब मंथरा के पैशुन्यजाल में पूरी तरह फँस चुकी थी । उसने पूछा" बहुत अच्छी बात कही तूने ! अब तू ही बता कैसे पासा पलट सकेगा ?" मंथरा बोली - " अब तो यही उपाय हो सकता है कि आप रूठकर कोपभवन में बैठ जायें । राजा जब तुम्हें मनाने आयें तो उनसे तुम्हारे अमानत रखे हुए दो वरदान माँग लेना ।" कैकेयी — " क्या-क्या वरदान माँगूँ ?" मंथरा - " यही कि राम को वनवास और भरत की राजगद्दी – ये दो वरदान मांगने से सारा पासा पलट जायेगा ।” कैकेयी रानी चुगलखोर मंथरा दासी के बहकावे में आ गई और आगे क्या हुआ सो तो आप सबको मालूम ही है । मंथरा दासी ने सिर्फ अपनी मालकिन की प्रिय बनने के लिए ही राजा दशरथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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