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आनन्द प्रवचन : भाग ११
बल्कि लोग जब उसकी आदत को समझ लेते हैं, सब कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता, सभी उसे झूठा (असत्यवादी) समझते हैं। एक बार कदाचित् उसके चक्कर में व्यक्ति आ जाये किन्तु बाद में तो कदापि उससे वास्ता नहीं रखते; उससे रुख नहीं मिलाते ।
चुगलखोर अपनी आदत के अनुसार जब किसी की चुगली करने लगता है, तो उसके दोनों ओठ जुड़ जाते हैं, वे ऐसे लगते हैं, मानो विष्ठा उठाने के लिए दो ठीकरे हैं, उन्हीं दो ठीकरों में वह अपने तालु, कण्ठ और जीभ से दूसरों की निन्दारूपी विष्ठा उठाता है । सुभाषित रत्न भाण्डागार में यही बात कही है
भिन्नकुम्भशकलेन किल्विषं, बालकस्य जननी व्यपोहति ।
तालुकण्ठरसनाभिरुज्झिता दुर्जनेन जननी व्यपाकृता ॥
अर्थात् -माता बालक की विष्ठा दो ठीकरों से उठाती है। चुगलखोर ने निन्दा-चुगली रूपी विष्ठा को अपने तालु, कण्ठ एवं जीभ द्वारा उठाकर जन्म देने वाली माता को भी मात कर दिया।
कितना अधर्मयुक्त, पापभरा अधर्मकार्य है, चुगलखोर का!
चुगलखोर किसी के बनते हुए कार्य को बिगाड़ना जानता है, सुधारना नहीं । प्रायः देखा गया है कि चुगलखोर अपने मालिक (स्वामी) को प्रसन्न करके उसका प्रिय बनने के लिए दूसरे के विषय में झूठी-सच्ची बातें भिड़ाता है, और दोनों में मनमुटाव करा देता है, या दोनों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, अथवा अप्रीति पैदा करा देता है । कितनी अधम-नीच वृत्ति है यह !
रामायण के मधुर प्रसंग को कैकेयी रानी की मंथरा दासी अरोचक बना देती है । यह तुलसी रामायण का हर पाठक या श्रोता जानता है, रामराज्य को अगर किसी ने एक ही रात में पलट-किया है तो पिशुनकी मंथरा ने ही। वह चुगलखोर के साथसाथ कपट क्रिया प्रवीण, एवं वागविदग्धा भी थी। उसने जब यह देखा कि कल प्रातः ही राम को राजगद्दी पर बिठा दिया जायेगा। इसे रोकने और अपनी मालकिन कैकेयी के पुत्र-भरत को दिलाने की कोशिश मुझे इसी रात में करनी है ।
उसने रानी कैकेयी को बहकाया- "अरी रानी ! तुझे पता है, कल क्या होने वाला है ?"
___कैकेयी-"क्या तुझे इतना भी पता नहीं, कि कल राम को राजगद्दी पर बिठाया जायेगा ?"
मंथरा- "मुझे तो इसमें भावी असंगल-सा दिखता है।" कैकेयी रोष में आकर बोली-“चुप रह ! तेरी जीभ खिंचवा लूंगी जो तूने
१. सुभाषित रत्न भाण्डागार, पृ० ६२
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