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________________ १२० आनन्द प्रवचन : भाग ११ पारिवारिक बन्धनों को तोड़कर समस्त संसार को अपना कुटुम्ब मानते हुए भी उससे अनासक्त, निर्लिप्त, तटस्थ रह सकता है, वही प्रमराग के बन्धन को तोड़ने में समर्थ हो सकता है । केवल परिस्थितियों के परिवर्तन से प्र ेमराग नष्ट नहीं हो जाता, उसके लिए मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । जैसाकि नीतिकार कहते हैंवनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्त्तते, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ - जिनके मन में राग होगा उनके मन में वन में रहने पर भी दोष प्रादुभूत होंगे और पंचेन्द्रियनिग्रह (मनोविजय ) करने पर घर में भी तप हो जायेगा । जो अनिन्दित (शुभ) कार्य में प्रवृत्त होता है, उस रागरहित व्यक्ति के लिए घर वन बन जायेगा । तपो महाभारत में भी रागादि बन्धन का अचूक प्रभाव बताते हुये कहा है तिष्ठेद् वायुद्र' वेदग्निज्वंलेज्जलमपि क्वचित् । तथापि ग्रस्तो रागाद्यं नप्तो भवितुमर्हति ॥ ' - हवा अगर सर्वत्र संचरण करना छोड़कर एक जगह स्थिर हो जाये, अग्नि जलाने के बदले स्वयं पिघलकर पानी बन जाय, अथवा जल भी शीतल होने के बदले स्वयं जलने लग जाये, तो भी राग आदि बन्धनों (विकारों) के रहते कोई भी व्यक्ति आप्त ( वीतराग - सर्वज्ञ महापुरुष ) नहीं हो सकता । जड़भरत की मृगशावक पर आसक्ति, बन्धन बनी — उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि राग का कारण समनोज्ञ (पदार्थ) होता है और द्वेष का कारण अमनोज्ञ पदार्थ । अज्ञानी जीव तो राग और द्वेष के वश होकर विविध पाप किया करते ही हैं, ज्ञानी और गृहत्यागी भी कभी-कभी अज्ञानी जीवों की तरह राग- बन्धन या आसक्ति बन्धन में अथवा स्नेहपाश में बुरी तरह जकड़ जाते हैं । 3 श्रीमद्भागवत् पुराण में जड़भरत का आख्यान आता है कि वे गंडकी नदी के किनारे जंगल में एक कुटी में रहते थे। आसपास चारों ओर जंगल था । प्रकृति की छटा और छवि अनोखी थी । एक दिन जब वे नदी में स्नान करके वापस लौट रहे १. महाभारत शान्तिपर्व २. रागस्स हेऊं समणुन्नमाहु दोसस्स हेऊं अमणु लमाह । ३. राग दोसस्सिया बाला पापं कुव्वंति ते बहु । ४. 'नेहपासा भयंकरा' Jain Education International For Personal & Private Use Only -उत्तरा० ३२/३६ - सूत्रकृतांग ८/८ - उत्तराध्ययन २३ /४३ www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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