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________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन महीं १२१ थे तो एक हिरन के बच्चे को नदी के पास ही एक नाले में छटपटाते देखा। वह मृगशावक अकेला था, उसकी मां या और कोई हिरन उसके पास नहीं था । जड़भरत ने उसे ऐसी दुर्दशा में देखा तो उन्हें उस पर दया आगई । वे उसे उठाकर अपनी कुटी पर ले आये । यहाँ तक तो ठीक था। परन्तु अब वे उसकी कोमल पीठ पर हाथ फिराते, उसे नहलाते-धुलाते, उसे खिलाते, उसकी क्रीड़ा देखते । जड़भरत का उस मृग-छोने पर इतना अधिक स्नेह हो गया कि रात-दिन वे उसी उधड़ेबुन में रहने लगे। आसक्तिमूलक प्रेमराग का बन्धन उन्हें बन्धन नहीं मालूम होता था । जड़भरत की उस पर इतनी अधिक ममता-मूर्छा या आसक्ति हो गई कि उन्होंने अपनी सब साधनासन्ध्या, उपासना, जप-तप, परमात्म-वन्दना आदि ताक में रख दी। इस प्रकार जड़भरत ने मृगासक्त होकर अपना पतन कर लिया। कहते हैं, वे मरकर मृग की योनि में पैदा हुए। महाभारत में स्पष्ट बताया है कृपयाऽपि कृतः संगः पतनायव योगिनाम् । इति संदर्शयन्नाह भरतस्यैण-पोषणम् ॥' -दयावश की हुई आसक्ति भी योगियों के लिए पतनकारक ही होती है। जड़भरत का मृग-पोषण भी इसी बात को सिद्ध करता है । आसक्ति छोड़े बिना सुख नहीं-श्री शुभचन्द्राचार्य ने आसक्ति को समस्त अनर्थों की जड़ माना है । वे कहते हैं संग एव मतः सूत्रे, निःशेषानर्थमन्दिरम्। -धर्मशास्त्रों में संग (आसक्ति) को ही समस्त अनर्थो का घर माना है। भागवत में एक दृष्टान्त देखकर इसे समझाया गया है कि एक कुरर पक्षी मांस का टुकड़ा लेकर उड़ा । उसके पीछे कौए आदि कई पक्षी लग गये। अन्त में हार-थककर उसने वह मांसपिण्ड छोड़ा और शान्ति से एक वृक्ष पर बैठा । दत्तात्रेयजी ने उसे गुरु मानते हुए यह शिक्षा ली है कि जब तक आसक्तिरूपी मांस का टुकड़ा नहीं टूटेगा, वहाँ तक क्रोध आदि कौए पिण्ड नहीं छोड़गे और सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होगी। आसक्ति का बन्धन आत्मज्ञान को ले डूबा-श्री शंकराचार्यकृत एक प्रश्नोत्तरी भी इस सम्बन्ध में प्रकाश डालती है कस्मात् सौख्यं भवति भगवन् ? शान्तितः सा च कस्माच, घेतःस्थर्यात, स्थितिरजनि मनः कस्य ? यः स्यानिराशः। मैराश्यं 4 मिलति च कप ? यन नासक्तिरन्तः, साऽनासक्तिविलसति कुतो ? यस्य बुद्धौ न मोहः ॥ भगवन् ! सुख किससे मिलना है ? शान्ति से। शान्ति किससे प्राप्त होती १. महाभारत, शान्तिपर्व २१५/४ टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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