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आनन्द प्रवचन : भाग ११
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है ? चित्त की स्थिरता से । मन किसका स्थिर होता है ? जिसके आशा नहीं है। आशा से छुटकारा कैसे मिलता है ? अन्तर् में आसक्ति न होने से। अनासक्ति कैसेकहाँ से मिलती है ? जिसकी बुद्धि में मोह नहीं होता।
. वैदिकपुराण की एक कथा है—एक बार काकभुशुण्डि के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि क्या संसार में ऐसा कोई दीर्घजीवी व्यक्ति है, जो विद्वान् तो हो, पर उसे आत्मज्ञान न हुआ हो ? वे इस बात का पता लगाने महर्षि वशिष्ठ से आज्ञा लेकर चल पड़े।
. ग्राम, नगर, वन, कन्दरा और आश्रमों की खाक छानी तब कहीं विद्याधर नामक ब्राह्मण से उनको भेंट हुई । जिनकी आयु ४ कल्प की हो चुकी थी, तथा जिन्होंने सम्पूर्ण वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया था। शास्त्रों के श्लोक उन्हें ऐसे कण्ठस्थ थे, जैसे तोते को राम-नाम । किसी भी शंका का समाधान वे झटपट कर देते थे।
काकभुशुण्डि को उनसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई । पर उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतने विद्वान् होने पर भी लोग उन्हें आत्मज्ञानी क्यों नहीं कहते ? यह जानने के लिए काकभुशुण्डि चुपचाप विद्याधर के पीछे घूमने लगे । एक दिन विद्याधर नीलगिरि पर्वत पर वन विहार का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें कण्वद राजा की राजकन्या आती दिखाई दी। नारी के सौन्दर्य से विमूढ़ विद्याधर प्रकृति के उन्मुक्त आनन्द को भूल गये । कामावेश ने उन्हें इस तरह दीन कर दिया, जैसे मणिहीन सर्प । वे इस सूत्र को भूल गये कि स्नेहक्षयात केवलमेति शान्तिम-एकमात्र स्नेहबन्धन (आसक्ति) का क्षय करने से ही शान्ति प्राप्त होती है। कामासक्ति ने उनकी मानसिक शान्ति भंग कर दी। वे राजकन्या के पीछे इस तरह चल दिये जैसे मृत पशु की हडिडयाँ चाटने के लिए कुत्ता । उस समय उन्हें न शास्त्र का भान रहा और न ही पुराण का। उनकी बुद्धि में मोह ने डेरा डाल दिया था। श्री अमृत काव्यसंग्रह इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रेरणा देता है
इण मोहजाल मांही बीत्यो है अनन्तकाल, नाना योनि मांही कष्ट सह्या है अपार रे । क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेषवश जीव, पायो दुःख अनन्त न छोड़त गंवार रे॥ आपा को विसार पर-गुण में मगन होय, बांधत करम नहीं करत विचार रे। अमीरिख कहे छोड़ सकल जंजाल भव्य ! धार सीख वेगा जाग, हो हुश्यार रे ॥
१. उपदेशमाला २, श्री अमृत काव्यसंग्रह, शिक्षा बावनी, घनाक्षरी छन्द
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