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प्र मराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं १२३ भावार्थ स्पष्ट है। मोहावृत होने के कारण विद्याधर विप्र को यह भान ही न रहा कि राजकन्या मुझसे उपेक्षा कर रही है, और मैं आसक्ति में बंधा उसके पोछे-पीछे भागा ही जा रहा हूँ।
वर्तमान युग में भी अनेक प्रेमी मजनू इकतरफा प्रेम (प्रणय) की उत्कटता में भीगे रहते हैं, दूसरी तरफ से प्रेम का छींटा भी नहीं होता, पर वे इस भ्रम में रहते हैं कि मैं जिसे प्रेम (मोह) करता हूँ वह भी मुझसे प्रेम करती है । बह प्रेमरागान्ध व्यक्ति मानी हुई प्रेमिका के हर व्यवहार, वाणी और हावभाव को प्रणय का.चिह्न समझता है । वह प्रेम का इकरार समझकर भयंकर भूल कर बैठता है। वर्तमान युवामानस में प्रेमराग का उन्माद, प्रणय की मिथ्या भ्रान्ति और प्रणय चिह्न का भ्रम तेजी से फैलता जा रहा है । जब उसे धक्का लगता है, तभी वह चेतता है; अन्यथा मोहान्ध बना हुआ युवक बुद्धिभ्रष्ट हो जाता है ।
विद्याधर को भी प्रणय भ्रम हो गया और पागल बने उस राजकन्या के पीछे जब बेधड़क राजमहल के द्वार तक पहुँच गये, तब सिपाहियों ने उन्हें विक्षिप्त समझकर कारागृह में डाल दिया। ..
कारागृह के बन्धन में पड़े हुए विद्याधर से काकभुशुण्डि ने पूछा-"विप्रवर! आप इतने विद्वान् होकर भी यह न समझ सके कि आसक्ति ही आत्मज्ञान का बन्धन है । यदि आप कामासक्त न होते तो आपकी ऐसी दुर्दशा क्यों होती।" यह सुनकर विद्याधर विप्र के ज्ञाननेत्र खुले, मोह का नशा उतरा और उन्हें सच्चा आत्मज्ञान हो गया । उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा है
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो। -जिसके मन में मोह नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो गया समझो।
प्रेमराग का बन्धन तोड़ डालो–साधुओं को पंचेन्द्रिय-विषयों के राग-द्वेष से मुक्त रहने का जगह-जगह उपदेश दिया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट निर्देश है
विजहित्त पुव्वसंजोगं, न सिहं कहि चि कुत्विज्जा ।' वोछिद सिणेहमप्पणो, कुमुअंसारइयं व पाणियं ।
असिणेह सिणेहकरेहि। ---'अर्थात् पूर्वसंयोग का त्याग कर चुकने पर किसी भी वस्तु पर स्नेह (आसक्ति) न करे।
_ 'कमलपत्र की भाँति तू निर्लेप बन, यहाँ तक कि अपने शरीर और अपनों के प्रति भी स्नेह (आसक्ति) का त्याग कर दे।'
'जो तेरे साथ स्नेह करे उनके साथ भी निःस्नेह भाव से रह ।'
१. उत्तरा० ३२/८ ३. उत्तरा० १०/२८
२. उत्तरा० अ०८/२ ४. उत्तरा० ८/२
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