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________________ १२४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ परन्तु एक बात प्रायः देखने में आती है, जो श्रीमद्भागवत में अभिव्यक्त है स्नेहानुबन्धो बन्धूना मुनेरपि सुदुस्त्यजः' -स्वजनों का स्नेहबन्धन तोड़ना मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुष्कर है। परन्तु कुछ ऐसे सुदृढ़ धातु के साधक होते हैं, जिन्हें मोह, प्रेमराग, भासक्ति, स्नेह या ममता-मूर्जा का बन्धन बिलकुल जकड़ नहीं सकता। प्रसेनजित राजा की पुत्री राजकुमारी विपुला राजोद्यानभ्रमणार्थ निकली थी। केसरिया वस्त्र के साथ सुनहरी चोली पहने राजकुमारी का सौन्दर्य कुमुदिनी को भी हतप्रभ कर रहा था। कानों में कर्णशोभन, वक्षस्थल पर मणिमाला और ग्रीवा में रत्नजटित स्वर्णहार, ये सब मिलकर उसकी रूपराशि में वृद्धि कर रहे थे । राजकुमारी के सौन्दर्य की चर्चा उस सारे जनपद में फैल गई थी। इधर प्रातःकाल की पीयूष वेला में राजोद्यान में स्थित भिक्षु नागसमाल सरस्वती वन्दना में निमग्न थे । वीणा की झंकार से सारा राजोद्यान भाव-विभोर हो रहा था । भैरवीराग सुनने के लिये राजकुमारी भी स्वर-मुग्ध होकर उसी तरह निकट चली आ रही थी, जिस तरह स्वरप्रेमी मृग आ जाता है। विपुला स्फटिक शिला पर बैठकर उन अमृतमय स्वर लहरियों का पान करती-करती भावविभोर हो उठी । उससे पैरों में बिजली की-सी चपलता आ गई, वे मचलने लगे, वीणा के स्वर के साथ पायलों की ध्वनि ने एकाकार होकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। ___ न रुकती थी वीणा की संगीतधारा प्रवाहित करने वाली नागसमाल की उंगलियां और न थमना चाहते थे राजकुमारी के थिरकते पांव। सूर्य एक बांस ऊपर चढ़ आया। महाराज प्रसेनजित भी रानी मल्लिका के साथ वहाँ आ पहुँचे । महापण्डित नागसमाल, जो अब तक सच्चिदानन्द की रसानुभूति में डूबे थे, महाराज प्रसेनजित को सामने देखते ही रुक गये। वीणा की तान टूटते ही पांवों की थिरकन बन्द हो गई । भावविभोर विपुला ने आगे बढ़कर वक्षस्थल पर पड़ी माला निकाली और चीवरधारी भिक्षु नागसमाल के गले में डाल दी। भिक्षु ने स्थितप्रज्ञ की भाँति वह माला गले में से निकालकर एक ओर रख दी। राजा की ओर देखकर वे बोले-"आर्य ! कुशलमंगल तो है न ?" "सब कुशलमंगल हैं, स्वामिन् ! किन्तु आपने राजकुमारी द्वारा आपके गले में डाली हुई वरमाला क्यों निकाल फेंकी ? आप जानते हैं, भारतीय कन्या जिसके गले में वरमाला डाल देती है, फिर उसके लिए वही आजीवन पति रहता है । फिर वह किसी और को नहीं वरण करती। इसलिये अब तो आपको मेरी रूपवती कन्या के साथ विवाह करना ही पड़ेगा।" १. श्रीमद्भागवत १०/४७/५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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