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________________ २२० आनन्द प्रवचन : भाग ११ कहत त्रिलोक तेरे दोष हैं, निन्दक माँही, याँ से मर जाए तब गति यम धाम की ॥' भावार्थ स्पष्ट है। पिशुन का संसर्ग : महादुःखदायक निष्कर्ष यह है कि चुगलखोर जब अभ्याख्यान तक पहुँच जाता है, तब अभ्याख्यान-झूठा कलंक लगाने में कसर नहीं रखता। अभ्याख्यान का फल क्या होता हैं ? इसका उत्तर पाने के लिये भगवतीसूत्र का पृष्ठ टटोलना होगा । वहाँ बताया गया हैजो दूसरे पर झूठा कलंक लगाता है, वह उसी प्रकार के कर्मों का बन्धन करता है । जहाँ वे उदय में आते हैं, वहीं वह भोगता है । पिशुन के संग से कितनी हानि उठानी पड़ती है ? इसके लिए एक प्राचीन उदाहरण लीजिये चक्रदेव महाविदेह क्षेत्रवर्ती चक्रवालनगरवासी अप्रतिचक्र सार्थवाह का पुत्र था । उसकी माता का नाम सुमंगला था। इसी नगर के सोमशर्मा पुरोहित का पुत्र, नंदीवर्द्धना का आत्मज यज्ञदेव उसका मित्र था। चक्रदेव की तो यज्ञदेव के प्रति सद्भावपूर्ण मैत्री थी, मगर यज्ञदेव की उसके प्रति कपटपूर्ण मैत्री थी। वह चक्रदेव का छिद्र देखता रहता था। चक्रदेव की सम्पदा देखकर उसे सहन नहीं होती थी। पर चक्रदेव के निखालिस जीवन में जब वह कोई भी छिद्र न पा सका तो उसने सोचा"ऐसा कोई झूठा कलंक लगाकर इसे दण्डित और अपमानित करूं जिससे राजा इसे नगरनिर्वासित कर दे।" यज्ञदेव उसी नगरनिवासी चन्दन सार्थवाह के यहाँ चोरी करके बहुत-सा माल ले आया और चक्रदेव के पास आकर कहने लगा-"मित्र ! मेरा धन-माल तुम्हारे यहाँ गुप्तरूप से रख लो।" पहले तो कुवेला में लाने के कारण चक्रदेव ने अपने यहाँ उस माल को रखने से इन्कार कर दिया; परन्तु बाद में यज्ञदेव द्वारा अत्यन्त आग्रह करने पर लिहाज में आकर उसने वह माल गुप्त रूप से रख लिया। चन्दन सार्थवाह के यहाँ चोरी हो गई है, यह बात जब फैलती-फैलती चक्रदेव के कानों में पड़ी तो उसके मन में शंका हुई । वह यज्ञदेव से पास समाधानार्थ पहँचा। यज्ञदेव ने कहा-“वाह मित्र ! ऐसी क्या बात करते हो ? क्या मैं चोरी का माल तुम्हारे यहाँ रखकर तुम्हें संकट में डालूंगा ?" चक्रदेव का समाधान हो गया। इधर चंदन सार्थवाह राजा के पास फरियाद लेकर पहुँचा । राजा ने पूछा"क्या-क्या माल गया ?" उसने चोरी हुए माल की सूची बनाकर राजा को सौंप दी। कार्यालय में भी रिपोर्ट लिखा दी । तत्काल राजा ने सार्वजनिक घोषणा करवाई कि १. त्रिलोक काव्य संग्रह । २. जेण परं अलिएणं असंतवयणेणं अभब्क्खाणेणं अभक्खाई । तस्स णं तहप्पगारा चेव कम्मा कज्जति । जत्थेव णं अभिसमागच्छति, तत्थेव पडिसंवेदेइ । -भगवतीसूत्र ५/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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