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________________ चुगलखोर का संग बुरा है २२१ “चंदन सार्थवाह के यहाँ चोरी हुई है। जिसने उसके यहाँ चोरी की है, वह माल सहित आकर राजा के समक्ष अपना अपराध स्वीकार कर लेगा, उसे राजा माफ कर देंगे । अन्यथा बाद में राजा को अपराधी का पता लगेगा, तो वे उसे कठोर दण्ड देंगे, उसको प्राणदण्ड भी दे सकते हैं ।" इस घोषणा के बाद ५ दिन तक चोरी का पता न लगा । अतः यज्ञदेव आकर कहने लगा- ' - " राजन् ! मित्र का छिद्र प्रकट करना उचित नहीं है, तथापि राजा के समक्ष तो जैसा जानता हो, वैसा कहना चाहिए; यह नीति है । यद्यपि वह मित्र है, किन्तु इस लोक और परलोक के विरुद्ध आचरण करने वाले दुःखदायक मित्र का क्या करू ? पितृतुल्य राजा की उपेक्षा कैसे करू ? जो देखा है, वही मैं आपको कहता हूँ ।" राजा - " जैसी बात हो, वैसी कहो ।" यज्ञदेव - " राजन् ! मैंने जैसा सुना है वैसा कहता हूँ । इस चोरी का सारा माल चक्रदेव के यहाँ है । अगर वह न माने तो उसके घर की तलाशी ली जाए । अब आप जैसा उचित समझें, करें । मेरा तो वह बड़ा भाई है । उसे माफ कर दें तो बहुत अच्छा । " 1 राजा - - "तुम्हारी बात पर गौर किया जाएगा। अगर उसके घर की तलाशी लेने पर दोषी पाया गया तो यथायोग्य दण्ड दिया जाएगा ।" राजा ने नगर के न्यायी पंचों को बुलाकर सारी बात उन्हें समझा दी । कहा - " चंदन सार्थवाह के भण्डारी को साथ लेकर आप सब चक्रदेव के घर की तलाशी लें ।” पंचों ने सोचा - 'चक्रदेव तो धर्मावतार है । वह चोरी करे, ऐसा मानने में नहीं आता ।' फिर भी राजा का आदेश था, इसलिए वे सब चक्रदेव के यहाँ पहुँचे । चक्रदेव ने सबका स्वागत किया। पंचों ने राजा का आदेश उसे सुना दिया । चक्रदेव ने निःशंक होकर कहा - "आप मेरे घर की तलाशी लेना चाहें तो ले सकते हैं ।" पंच नगर के वृद्ध पुरुषों तथा राजपुरुषों के साथ लेकर गये थे । अतः उन्हें तलाशी लेने को कहा । घर में देखने पर उन्हें चंदन सार्थवाह का चोरी गया हुआ माल मिल गया । उन्होंने सारा माल बाहर लाकर चंदन सार्थवाह के भंडारी को बताया । उसे देखकर बड़ा दुःख हुआ । पंचों ने चक्रदेव से पूछा - " तुम्हारे घर में यह सामान कहाँ से आया ?" चक्रदेव ने सोचा - मित्र का नाम कैसे लूं । इसके सिर चोरी का कलंक आए तो मेरी सज्जनता लज्जित होगी । अतः पंचों ने विविध रूप से पूछा, पर चक्रदेव ने नाम न लिया। पंचों को विश्वास न हुआ कि चक्रदेव ने चोरी की है । अत: कहा - निःसंकोच होकर जैसी बात हो, कहो । फिर भी उसने कुछ भी न बताया तो कोतवाल ने गिरफ्तार करके उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया । राजा ने भी चक्रदेव को वास्तविक बात बताने को कहा । पर चक्रदेव ने पहले की तरह ही कहा । राजा को चक्रदेव पर शंका हुई । उसे और तो कुछ कहा नहीं नगर के बाहर वन में निकाल दिया । चक्रदेव ने मन ही मन सोचा - मेरा इतना पराभव और अपयश हुआ । अतः अब तो जीना बेकार है । यों सोचकर देवालय के निकट - वर्ती वड़ में फांसा डालकर गले में लगाया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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