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________________ २२२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ उसी समय वन देवी ने यह महा-अनर्थ जानकर चक्रदेव पर करुणा करके जैसी बात थी, वह ज्यों की त्यों राजमाता के घट में आकर कहलाई तथा यह भी सूचित किया कि नगर के बाहर चक्रदेव ने आत्महत्या करने हेतु गले में फाँसा लगाया है, उसे रोको और सम्मान सहित नगर में लाओ। यह सुनते ही राजा ने दुष्ट यज्ञदेव को पकड़ लाने का आदेश दिया और स्वयं ने जाकर वन में फांसा लगाते चक्रदेव को रोका। फिर साथ में बिठाकर राज दरवार में लाए । आश्वासन दिया। बोले-तू सच्चा था तो इतना पूछने पर तूने बताया क्यों नहीं ? तेरा सारा वृत्तान्त वनदेवी ने मेरी माता के घट में आकर बताया है, यज्ञदेव को झूठा कहा है, उसने तुझे फंसाया है। फिर राजा ने उससे क्षमायाचना की। ___ इतने में तो राजपुरुष यज्ञदेव को रस्सों से बाँधकर राजा के समक्ष ले आये। राजा ने कहा- "इस महादुष्ट कृतघ्न एवं विश्वासघाती को जीभ काट लो, इसकी दोनों आँखें निकाल लो । इसका घर लूट लो । इसे मार-पीटकर देश निकाला कर दो।" यह सुनते ही चक्रदेव राजा के चरणों में पड़कर कहने लगा- “राजन् ! मुझे और कछ नहीं चाहिए, यज्ञदेव को बन्धनमुक्त कर दें।" राजा ने कहा-“यह तो महादुष्ट है, विश्वासघाती है, इसे दण्ड मिलना चाहिए।" "जो भी हो यज्ञदेव को जीवन दान दीजिये। मुझे और कुछ नहीं चाहिये। इसे जीवन दान दीजिये यही मेरे लिये सर्वस्व प्राप्ति है।" राजा ने उसकी आग्रह भरी प्रार्थना पर यज्ञदेव को मुक्त कर दिया। चक्रदेव ने राजा का बहुत आग्रह माना । राजा ने चक्रदेव को बहुत आदर दिया। लोगों की दृष्टि में चक्रदेव बहुत ही सम्मान्य वन गया। परन्तु यज्ञदेव को प्रतिष्ठा समाप्त हो गई । वह जीते जी मृतवत् हो गया । चक्रदेव को इस घटना से संसार से वैराग्य हो गया-"अहो ! कैसी है कर्म की विचित्रता ! संसार की असारता और मित्र की भी विश्वासघातता ! ऐसे स्वार्थ और कपट से भरे मित्रादि युक्त संसार की मोहमाया का परित्याग करना ही उचित है।" __ अग्निभूति नामक गणधर इसी अवसर पर पधार गये । चक्रदेव ने उनके दर्शन किये, देशना सुनी । धर्म के सम्बन्ध में सारी बात सुनी तो सर्वप्रथम मिथ्यात्त्व का त्याग करके सम्यक्त्व ग्रहण किया, तत्पश्चात् देशविरति (श्रावक व्रत) ग्रहण किया। वैराग्यवृत्ति बढ़ी । दीक्षा के परिणाम हुए । गुरु से निवेदन किया। गुरु ने चक्रदेव को सर्वविरति के योग्य जानकर महाव्रती दीक्षा दी । तप संयम का शुद्धतापूर्वक आजीवन पालन किया । यहाँ से शरीर छोड़कर चक्रदेव मुनि पांचवें देवलोक में गए। यज्ञदेव अपने कलुषित पैशुन्यकर्म के फलस्वरूप मर कर दूसरी नरक भूमि में उत्पन्न हुआ। ___बन्धुओ ! इस प्रकार चक्रदेव यज्ञदेव जैसे चुगलखोर का संग छोड़कर सुखी हुआ। मगर यज्ञदेव तो वहाँ से ६ठीं नरक में जायेगा। अनन्तकाल तक संसार परिभ्रमण करेगा। इसीलिये महर्षि गौतम ने चेतावनी दी है न सेवियव्वा पिसुणा मणुस्सा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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