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७३. जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवन की व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो सेवा के योग्य है, जिसकी संगति और सेवा में रहने से मनुष्य का जीवन धन्य एवं पाबन बन जाता है । अथवा संसार में जो सबसे अधिक सेवा का पात्र है । ऐसा जीवन है-धार्मिक जीवन । दूसरे शब्दों में कहूँ तो महर्षि गौतम ने ऐसे व्यक्तियों को सेवापात्र या सेव्य बनाया है, जो धार्मिक हों । गौतमकुलक का यह ५६वाँ जीवन-सूत्र है, जिसमें महर्षि गौतम ने बताया है
जे धम्मिया ते खलु सेवियव्वा अर्थात्-जो धार्मिक हैं, वे सेवा पात्र हैं, उनकी सेवा करनी चाहिए अथवा उनकी सेवा-संगति में रहना चाहिए। धार्मिक किसे कहना चाहिए ? उनकी सेवा करने से क्या-क्या लाभ हैं ? उनकी सेवा के अवसर क्यों ढूंढने चाहिए ? इन सब पहलुओं पर मैं आपके समक्ष चर्चा करने का प्रयास करूंगा।
धार्मिक कौन : यह या वह ? सामान्य रूप से धार्मिक उसे कहा जाता है—जो धर्म का पालन करे। परन्तु साम्प्रदायिक लोगों का धार्मिक वो नापने का गज दूसरा होता है। वे अपने धर्म-सम्प्रदाय के क्रियाकाण्डों से उसे नापते हैं, अगर किसी धर्म सम्प्रदाय वाला व्यक्ति नीतिमान हो, प्रामाणिक हो, सदाचारी हो, अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का आचरण करता हो, परन्तु अमुक धार्मिक क्रियाकाण्ड न करता हो तो उसे उस धर्म सम्प्रदाय के धुरन्धर पण्डित, मौलवी, उपाध्याय, आचार्य या वरिष्ठ अधिकारी धार्मिक नहीं कहेंगे। वे प्रायः यही कहेंगे-यह व्यक्ति और तो सब तरह से ठीक है, किन्तु हमारे धर्म (मजहब) की दृष्टि से धार्मिक नहीं है। क्योंकि यह नमाज नहीं पढ़ता या प्रार्थना नहीं करता अथवा मन्दिर में नहीं आता, गुरुद्वारे में नहीं आता अथवा उपाश्रय में आकर अमुक धार्मिक क्रियाकाण्ड नहीं करता।
__ महात्मा गांधीजी चुस्त धार्मिक थे। वे धर्म के अहिंसा, सत्य आदि अंगों का पालन करते थे, जीवन में नीतिमान, सत्यवादी, प्रामाणिक और परमात्मा के प्रति दृढ़ विश्वासी थे। उनकी धार्मिकता में कोई कसर नहीं थी। भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम के जमाने में महात्मा गांधीजी के दो परम सहयोगी काँग्रेसी थे--मोहम्मद अली और शौकत अली । उनसे किसी ने महात्मा गांधीजी के सम्बन्ध में पूछा-गांधीजी कैसे
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