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आनन्द प्रवचन : भाग ११
बूनो रामनाथ की प्रशंसा राजा कृष्णचन्द के कानों में पहुँची। उन्होंने उन्हें बुलाया, लेकिन उन्हें तो राजा से कोई चाह न थी, अतः जाते ही क्यों ? और जो कुछ वे चाहते थे, वह राजा के पास था ही कहाँ ? राजा ने उनसे पूछा-आपको कोई अनुपपत्ति तो नहीं है ? अर्थात कोई अभाव तो नहीं है अन्न, वस्त्र का ? पण्डितजी ने कहा- "मुझे कोई अभाव नहीं है । मेरे छात्र प्रतिदिन दो मुठी चावल दे देते हैं। मेरे आंगन में इमली का पेड़ है, जिसके पत्तों का साग बन जाता है। घर के पास ही कपास का एक पौधा भी है, जिसकी रूई से ब्राह्मणी सूत कात लेती है। सूत से एक कपड़ा भी तैयार हो जाता है। बस, इतनी ही मेरी आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति हो जाती है।" राजा ने आर्थिक सहायता लेने के लिए बहुत अनुरोध किया लेकिन उन्होंने साफ इन्कार कर दिला । अन्ततः राजा उनकी धर्मपत्नी के पास गया तो उसका भी वही उत्तर था। पति-पत्नी दोनों बिलकुल निःस्पृह थे।
यह है-पण्डित का निःस्पृह, निराकांक्ष और संतोषी जीवन । सिर पर आकांक्षाओं की गठरी और काँख में लोकषणा आदि एषणात्रय का कुपथ्य लेकर ज्ञानसमुद्र की थाह नहीं ली जा सकती।
जो पुराना पण्डित था, वह कोरा पण्डित नहीं था। वह समझता था, जैन शास्त्रों में वर्णित समत्वरस का पान करने-कराने के लिए व्यक्ति को सुख-दुःख से अतीत, आकांक्षाओं से रहित तथा तटस्थ बनना पड़ेगा। दिवंगत पं० सुखलालजी का जीवन भी कितना सादगी से ओतप्रोत, निसर्गनिर्भर, निरभिमानपूर्ण था। ज्ञान के लिए उन्होंने स्वयं को समर्पित कर दिया था। न थी प्रसिद्धि की चाह और न थी धन-कामना । एकमात्र ज्ञानार्जन में सारी शक्ति उन्होंने लगाई, उसका भी परिग्रह नहीं समाज को सर्वत्र सर्वदा मुक्तहस्त से वितरित करते गये थे।
इस प्रकार प्राचीन पण्डित गृहस्थवर्ग का मार्गदर्शक था, गुरुजी था अध्यापक था, परामर्शक था और अभिभावक भी था। समाज पर आए हुए संकट-निवारण के लिए स्वयं जुट जाता था, वह समाज का अभिन्न सच्चा मित्र और रहवर बनकर सर्वथा बौद्धिक सहायता करता था। जब भी कोई कठिनाई, दुविधा या विघ्न-बाधा उपस्थित होती थी, तब समाज उससे सादर विचार-विमर्श करता था, उससे समाज के चित्त को समाधान प्राप्त होता था। इस प्रकार वह नई पीढ़ी का भाग्यविधाता और मार्गद्रष्टा होता था। अपनी आवश्यकताएं सीमित रखकर वह अपने जीवन को एक लोक-सेवक की भाँति समाजहितार्थ समर्पित करके जीता था। वह इतना निःपृह होता था कि समाज स्वतः आगे होकर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता, उसके सुख-दुःख की चिन्ता रखता था। पण्डित : बौद्धिक विकास के साथ आध्यात्मिक निष्ठा
इतना सब करते हुए भी वह पण्डित आत्मविकास को भूलता नहीं था। कहना होगा कि पण्डित शब्द केवल बौद्धिक विकास से ही सम्बन्धित नहीं है, अपितु ज्ञान
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