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________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४६ और चारित्र, दर्शन और आत्मसुख, वीर्य (आत्मबल) और आत्मशुद्धि के लिए पराक्रम करने के रूप में आत्मिक विकास से भी सम्बन्धित है। क्योंकि आत्मिक विकास में पराक्रम करने वाला एवं तत्त्वज्ञान को सीखने-सिखाने वाला व्यक्ति पण्डित कहलाने का अधिकारी है । अभिधान राजेन्द्रकोश में पण्डित का कर्तव्य बताते हुए कहा है जं किंचु ववकम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए॥ इसीलिए शंकराचार्य ने पण्डित की वृत्ति-प्रवृत्ति का संक्षेप में दिग्दर्शन करा दिया है आत्मविषया बुद्धिः येषां तेहि पण्डिताः । -जिनकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वे ही वास्तव में पण्डित हैं। जिनकी बुद्धि आत्मा में ही स्वाभाविक रूप से ओतप्रोत है, आत्मभावों में रमण करती है, वह व्यक्ति शरीर और शरीर के सम्बन्धित विषयों, इन्द्रियविषयों का गुलाम नहीं होता, वह उनमें आसक्त होकर कर्मबन्ध नहीं करता, वह कर्मबन्धनों को तोड़ने के लिए स्वयं पुरुषार्थ करता है, दूसरों को भी बन्धनमुक्त करने के लिए परामर्श एवं प्रेरणा देता है । परन्तु जो स्वयं बन्धनों में पड़ा है, शरीर, मन और इन्द्रियों का गुलाम है, शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों के प्रति आसक्त है, वह दूसरों को बन्धनमुक्त कैते कर सकता है ? या कैसे गुलामी से छुड़ा सकता है ? स्वयं स्वतंत्र हुए बिना दूसरों के परतन्त्रता की बेड़ियाँ कैसे काट सकता है ? वह पण्डित ही कैसे कहला सकता है ? मुझे एक रोचक दृष्टान्त याद आ रहा है___ एक पण्डित था । वह प्रतिदिन राजा को धर्मकथा सुनाया करता था। राजा उसे प्रतिदिन एक स्वर्ण मुद्रा देता था। पण्डित स्वर्णमुद्रा पाकर बड़ा प्रसन्न होता था। ___ एक दिन धर्मकथा सुनते-सुनते राजा कुछ विचार में डूब गया। सोचा'मैं प्रतिदिन धर्मकथा सुनता हूँ, बचपन से लेकर आज तक मुझे धर्मकथा श्रवण करते हुए वर्षों हो गये हैं, लेकिन उससे क्या लाभ हुआ ? मेरे जीवन में तो जरा-सा भी परिवर्तन नहीं हुआ। ऐसा क्यों ?' कथा समाप्त होते ही राजा ने कथावाचक पण्डितजी से पूछा- “पण्डितजी ! बचपन से मैं प्रतिदिन आप से धर्मकथा सुनता आ रहा हूँ। मेरे बाल सुनते-सुनते पक गए। शास्त्र कण्ठस्थ हो गये हैं। परन्तु अभी तक मुझे विषयों से अरुचि नहीं हुई । विकारों में मन्दता नहीं आई । इन्द्रियजन्य सुखोपभोग को छोड़ने की इच्छा नहीं होती। विषयों की गुलामी से मन मुक्त नहीं हुआ । नैतिकता की नींव भी अभी कच्ची है। कई बार तो नीति और धर्म पर से मेरी आस्था ही डगमगा जाती है। इतना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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