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________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहि- परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ - जो व्यक्ति परमात्मा - शुद्धात्मा को शरीर से भिन्न ज्ञानमय जानता है, जो आत्मानुभूतिरूप परम समाधि में सुस्थित है, वही पण्डित – अन्तरात्मा है । fron यह है कि जो अपने शरीर और शरीर सम्बन्धित पदार्थों के प्रति निरपेक्ष- निःस्पृह है, निराकांक्ष होकर जीता है, जिसे भविष्य की कोई चिन्ता नहीं होती और न ही वह किसी से पद, प्रतिष्ठा, भेंट-पूजा की अपेक्षा रखता है, वही वास्तव में पण्डित है । ऐसा पण्डित ही जिज्ञासु-जनों को बोध एवं मार्गदर्शन दे सकता है । वही गृहस्थ की अटपटी समस्याओं, उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा सकता है । वही जीवन और जगत् के प्रति उदासीन होकर उसके युगलक्षी प्रश्नों का समाधान भी करता है । भगवद्गीता ने इसी बात को अपनी भाषा में व्यक्त किया हैयस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवजिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ यो न शोचति, न च कांक्षति । २४७ - जिसके सभी समारम्भ - सत्कार्य कामनाओं और संकल्पों से रहित होते हैं, जो अपने सारे कर्म ज्ञानरूप अग्नि में जलाता है, उसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पण्डित कहते हैं। जो न किसी प्रकार की चिन्ता करता ( सोचता ) है, और न आकांक्षा करता है । जो यह सोचता है— मुझे वह नहीं मिला, आकांक्षा भी करता है— मुझे यह मिलना चाहिए, मुझे वह मिलना चाहिए। जिसको नई-नई आकांक्षाएँ बाध्य करती रहती हैं, सुख-सुविधाओं के लिए जो लालायित रहता है, चाह और चिन्ता के चक्रव्यूह में वह ऐसा विवश हो जाता है कि शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों की ही धुन जिसे लगी रहती है, जो आत्मा और आत्मगुणों के विचार से कोसों दूर हो जाता है, फिर भला वह 'पण्डित' बनेगा ही कैसे ? Jain Education International अठारहवीं सदी की ही बात है । बंगाल में कृष्णनगर के निकट एक गाँव में एक ब्राह्मण पण्डितजी रहते थे । नाम था - रामनाथ । वे बहुत दरिद्र थे । दरिद्रता उन पर लादी हुई नहीं थी, उन्होंने ही स्वेच्छा से दरिद्रता को ओढ़ लिया था । इतने निराकांक्षी एवं स्वाभिमानी कि किसी से कुछ भी माँगते नहीं थे, न उन्हें किसी वस्तु की लालसा थी । वे अपनी दरिद्रता की जिक्र तक नहीं करते थे, किसी के सामने । अहर्निश अपने अध्ययन-अध्यापन में निरत रहते थे । उनकी पत्नी के हाथों में सोने की चूड़ियाँ तो दूर रहीं, सुहाग चिह्नस्वरूप चूड़ियाँ भी न थीं, केवल लाल सूत का मोटा धागा वे अपनी कलाई पर बाँधे रखती थीं, सुहाग चिह्न के प्रतीक के रूप में 1 पण्डितों के गुणों और पण्डित को जंगली साधारण आँखों में कहाँ इतनी शक्ति होती है, ऐसे ऊंचाइयों को परखने की ? अतः लोग उन सादगी की मूर्ति बुनो रामनाथ कहते थे । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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