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आनन्द प्रवचन : भाग ११
होती है । इस तरह वह विकृत बवंडर एक सुकृत शुभंकर रूप में परिवर्तित हो गया।
___ सारे ग्रामवासी पं० द्विवेदीजी के इस प्रत्यक्ष मार्गदर्शन को शिरोधार्य करके ऊंच-नीच और छुआछूत का भेदभाव छोड़कर परस्पर गले मिले। द्विवेदीजी के चरण श्रद्धापूर्वक स्पर्श किये। उनसे क्षमा माँगी।
___ यह है, तेजस्वी मार्गदर्शक पण्डित का व्यक्तित्व ! पण्डित को युगस्पर्शी परिभाषा
कवि सोनवलकर ने पण्डित की युगस्पर्शी परिभाषा इस प्रकार की हैजिनके ज्ञानसूर्य में जीवन-अनुभव की ऊष्मा हो। जिसके प्रवचन में मार्मिक संवेदन की सुषमा हो । भवबन्धन के साथ-साथ जो रूढ़िजाल' भी काटे । प्रभुप्रसाद के साथ-साथ जो समता मिसरी बांटे ।। जाति-वर्ण-कूल-गोत्रभेद को जिसकी दृष्टि न देखे । औरों के अवगुण विकार जो करे सदा अनदेखे । मन से, वचन-कर्म से जो हो सत्पथ का अनुगामी । कथनी और करनी में जिसकी रहे न कोई खामी ॥ स्पर्श-रूप-रस-गन्ध बीच जो कमलपत्र-सा रहता। बँधता नहीं पंथ-काई से, निर्मलनीर सा बहता ।। सबसे जुड़कर भी जो भीतर अनासक्त है।
वह ज्ञानी है, कर्मवीर है, वही भक्त है ॥
सचमुच कवि की अनुभव संस्पृक्त वाणी में पण्डित के सभी लक्षण आगये हैं । पण्डित : कितना आध्यात्मिक, कितना व्यावहारिक ?
इन सब लक्षणों को देखते हुए पण्डित बहुत ही सम्मानसूचक शब्द है । जो विशिष्ट ज्ञानियों के लिए प्रयुक्त होता है। यह सम्बोधन किसी यूनिवर्सिटी से प्राप्त बी.ए., एम.ए. आदि डिग्रियों की तरह उपलब्ध नहीं किया जा सकता । वह ज्ञानयुक्त आचरण से अजित किया जा सकता है। 'पण्डित' शब्द से मस्तिष्क में ऐसे व्यक्ति की छवि उभरती है, जो शास्त्रों का मर्मज्ञ हो, प्रवचनकला में प्रवीण हो, कलम का धनी हो, तथा जिसकी कथनी-करनी एक हो। इसके अतिरिक्त जो जिनवाणी-माता के भण्डार में स्वबौद्धिक शोध-बोध का अर्घ्य सतत चढ़ाकर उसे समृद्ध बनाता रहता हो । जिसके शास्त्र-व्याख्यान और जीवन-व्यवहार दोनों में वैपरीत्य हो उसे पण्डित मानना, ‘पण्डित' शब्द का उपहास है । परमात्म प्रकाश में आचार्य योगेन्दुदेव ने पण्डित शब्द की परिभाषा की है
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