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________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४५ प्रति दृष्टपात करते हैं तो उनका पाण्डित्य प्रदर्शनमात्र सिद्ध हो जाता है, उनके जीवन का खोखलापन भी स्वतः प्रमाणित हो जाता है। वैदिक और जैन समाज का इतिहास बताता है कि मध्ययुग से पण्डितवर्ग उत्तरोत्तर दीनता और हीनता का शिकार बनता गया । ब्राह्मण पण्डित भी प्रायः वैश्यवर्ग और क्षत्रियवर्ग की चाटुकारिता करके जीया। वह जिस परम्परा और सिद्धान्तहीन रूढ़ि में जीता आया, उसी रूढ़ि और परम्परा पर गतानुगतिक बनने की प्रेरणा वह समाज को देना चाहता है । तेजस्वी मार्गदर्शक पण्डित इस कारण कुछ तेजस्वी सिद्धान्तजीवी ब्राह्मण-पण्डितों द्वारा ऐसी गलत परम्परा को तोड़ने पर वह बौखला उठता है और समाज को उन्हें जाति-बहिष्कृत करने की प्रेरणा देता है । एक ज्वलन्त उदाहरण लीजिये ___ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी सच्चे पण्डित थे। वे अपने जीवन से समाज को मूक मार्गदर्शन देते रहते थे। वे सरस्वती की सेवा करने के उपरान्त अपनी बौद्धिक प्रतिभा का उपयोग किसानों को कृषिविज्ञान का मार्गदर्शन करने में करते थे। एक बार वे खेत से लौट रहे थे कि उन्हें हृदयविदारक चीख सुनाई पड़ी। वे उसी दिशा में दौड़ पड़े और देखा कि चीखने वाली एक अन्त्यज पासिन स्त्री है, जिसके पैर में सांप ने डस लिया है । आचार्यजी ने तुरन्त अपनी जनेऊ तोड़ी और सर्पदंश से प्रभावित हिस्से पर कसकर बाँध दी। फिर चाकू निकाल कर उतने भाग का माँस व रक्त काटकर निकाल लिया। फलतः पासिन की जान बच गई । तब तक कुछ गाँव वाले भी घटनास्थल पर आ पहुँचे । गाँव के ब्राह्मणों में इस घटना को लेकर भूचाल उठ खड़ा हुआ। कहने लगे—यह धर्मविरुद्ध कार्य है। एक पढ़े-लिखे ब्राह्मण ने अपनी पवित्र जनेऊ एक नीच जातीय स्त्री के पैर से स्पर्श कराया। कहाँ एक अति पवित्र वस्तु और कहाँ एक शूद्र स्त्री का अपवित्र पैर ! यह तो सरासर ब्राह्मण के यज्ञोपवीत का अपमान है। फिर परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीतरहित होने की स्थिति में ब्राह्मण का मौन रहना आवश्यक है, किन्तु द्विवेदीजी यज्ञोपवीतरहित होने पर उस भी अन्त्यजा को सांत्वना देते रहे । गाँव के एक छोर से दूसरे छोर तक खलबली मच गई। बात इतनी बढ़ी कि कुछ पुरातनपंथी ब्राह्मण-पण्डित द्विवेदीजी को जाति-बहिष्कृत करने पर उतारू हो गए। द्विवेदीजी अपने को निर्दोष साबित करते रहे। समाज के कुछ प्रबुद्ध और प्रगतिशील व्यक्तियों ने बीच-बिचाव किया। उनके प्रयत्नों से उलझी हुई गुत्थी सुलझ गई। बड़ी धींगाधींगी के बाद तय हुआ कि किसी के प्राण बचाने से ब्राह्मण का यज्ञोपवीत अधिक पवित्र होता है। ऐसी स्थिति में यज्ञोपवीतरहित वाणी भी पवित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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