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________________ २४४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पण्डित पद का अवमूल्यन पिछले दो दशकों में पण्डित शब्द का प्रयोग बहुत ही उदारतापूर्वक होने लगा है, किन्तु पहले दश सहस्र लोगों में एक पण्डित हुआ करता था, आजकल तो एक छोटे-से कस्बे में ही अनेक पण्डित मिल जाते हैं। किसी जैन शाला का मिडिल पास प्राथमिक कक्षाओं का शिक्षक भी पण्डित कहलाता है । हवन, झाड़-फूंक, विवाह आदि सम्पन्न कराने वाले भी पण्डित कहलाते हैं, भले ही वे पंचपरमेष्ठीमंत्र का उच्चारण भी अशुद्ध करते हों। पाँच रुपये तक वार्षिक चन्दा देकर विद्वत्सभा जैसी संस्था का सदस्य बनकर भी पण्डित-पद प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे आरोपित पण्डितों में ज्ञान हो या न हो, दम्भ, क्रोध, लोभ, पदलोलुपता, माया, चाटुकारिता, निर्जीव नाम की चाह, थोथे यश की कामना आदि अनेक धब्बे पण्डित पद पर पड़े हुए हैं। बीसवीं सदी में इन नामधारी तथाकथित पण्डितों में एक विचित्र दुर्गुण घर करता जा रहा है । वह है-धनिकों की खुल्लमखुल्ला चाटुकारी। धनिकों से पैसा खींचने के लिये मंच पर से ही उनके प्रशस्ति गीत गाना, अभिनन्दन-पत्र देना-दिलाना। उन्हें पंचकल्याणक उत्सव के समय राजा या इन्द्र का पद लेने के लिये आकर्षित करने की कला में प्रवीण पण्डित क्या अपने पद का अवमूल्यन नहीं करता ? साधु जीवन में हमें कई लोगों से वास्ता पड़ता है। मुझे दीक्षा लिये कुछ ही वर्ष हुए थे कि एक बड़े कस्बे में मुझे एक श्रावक मिले; वे सम्प्रदाय से जैन एवं कट्टर जातिवादी थे । एक बार पण्डित शब्द के बारे में चर्चा चली तो उन्होंने अपने हृदय में उठती हुई टीस को व्यक्त करते हुए कहा-“महाराजश्री ! आप जानते हैं, पण्डित किसे कहते हैं ? मैंने कहा-“मैं तो यही समझता हूँ, पण्डित यानी विद्वान, वक्ता या लेखक !" उन्होंने कहा- ऐसा नहीं, जैसे पण्डित में तीन अक्षर हैं, वैसे ही उसकी विकृति सूचित करने वाले तीन दुगुण हैं-'प' यानी पापी या पाजी, 'ड' यानी डाकू और 'त' यानी तस्कर ! तीनों मिलकर हुआ पण्डित ! पण्डित का यह विकृतिसूचक अर्थ भले ही व्यंग और विनोदपूर्ण हो, लेकिन जो व्यक्ति इतना धर्मपरायण है, दान करने में अग्रणी है, धर्मशाला आदि बनवाने वाला है, वह सहसा पण्डित का ऐसा अपमानसूचक अर्थ नहीं कर सकता। कबीर के शब्दों में कहूँ तो पोथी पण्डित या मिथ्याभाषी को 'पण्डित' नहीं कहा जा सकता। हमारे अधिकांश पण्डितों की मनःस्थिति इतनी गिर गई है कि वे प्रमाद में डूब जाते हैं, दुनिया के घटनाचक्र से, नये-नये वाङमय से उनका परिचय शून्यवत् रहता है, वे अपने सीमित तत्त्वज्ञान, ग्रन्थों, परिभाषाओं और परम्पराओं से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सकते। अध्यात्म एवं आत्मा-परमात्मा की, सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन की एवं धर्म की लम्बी-चौड़ी चर्चा करने वाले उन तथाकथित पण्डितों के जीवन के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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