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________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४३ आशय यह है कि-अरे पण्डित ! निःसार वस्तु को क्यों सूप में रखकर फटक रहा है ? सूप में उसी को पछौर-फटक, जिसमें आत्मतत्त्व-निजत्व का कोई अंश हो। अन्यथा थोथा पण्डित है, और उसकी वाणी भी थोथी है । इसका अर्थ यह हुआ कि जिसमें वाग्वदग्ध्य है, वह विद्याव्यसनी तो है लेकिन शास्त्रानुसार क्रियावान नहीं है, वह पण्डित नहीं है। पण्डित का सीधा-साधा समीकरण इस प्रकार है ज्ञान+आचरण=पण्डित ज्ञान ही ज्ञान=अपण्डित आचरण ही आचरण= अपण्डित । इसलिए महाभारत में तथा ठाणांगसूत्र (ठा० ४) की टीका में पण्डित शब्द का लक्षण उपलब्ध है पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः। सर्वे व्यसनिनो मूर्खाः, यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ -ज्ञानार्थी, अध्यापक एवं जो अन्य शास्त्रचिन्तक हैं, चारित्रवान होना ही उनकी पहिचान है; अन्यथा सभी (विद्या) व्यसनी और मूर्ख होते हैं। जो क्रियावान (आचारवान) है, वही पण्डित है । थोथे उपदेश-सिद्धान्तहीन मार्गदर्शन ही पण्डित के व्यक्तित्व को ले डूबा । उपदेश तो ये पापों के त्याग का करते हैं, अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का देते हैं, लेकिन स्वयं समाज में सम्प्रदायान्धता, कटटरता और पक्षपात फैलाते हैं, कलह और झगड़ों का बीज बोते हैं। किसी ने एक बार अपनी भाषा में कहा था-"पण्डितजी में एक ऐब हैदिन में बड़ी मीठी आवाज में भाषण देउत हैं, और रात में १२ बजे तक खाउतपीउत हैं।” मन-मुटाव और तोड़-फोड़ का या अमुक-तमुक के तिरस्कार-बहिष्कार का नारा लगाकर झगड़े का बीजारोपण अधिकांश पण्डितों द्वारा ही किया जाता है । वे ठोस रचनात्मक आधार देकर समाज के गिरते हुए-डिगते हुए युवावर्ग या धर्मश्रद्धा से विचलित होते हुए वर्ग को थामने का कार्य नहीं करते । स्थिरीकरण, उपगृहन या उपबृहण, वात्सल्य और प्रभावना शब्द केवल व्याख्यान सभा या शास्त्र-स्वाध्याय में ही सीमित होकर रह गये हैं, जीवन की देहली में उनका आलोक नहीं फैल पाया है। इसलिए पण्डित लोग प्रायः बहिरात्मा बने हुए हैं। इसीलिये अनगारधर्मामृत की टीका में विक्रम की १३वीं शताब्दी के ग्रन्थकार पं० आशाधरजी ने एक श्लोक उद्ध त किया है पण्डितभ्रष्टचारित्रर्बठरेश्चतपोधनः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ -चारित्रभ्रष्ट पण्डितों ने और बठर (पोंगा पंथी) तपस्वियों ने जिनचन्द्र के निर्मल शासन (संघ) को मलिन कर दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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