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आनन्द प्रवचन : भाग ११
"जिसका हृदय अविद्या से ढका है, वह अज्ञानी पण्डित के साथ रहकर भी धर्म के तत्त्व से नहीं जान पाता, जैसे कि कड़छी सूप के स्वाद को नहीं जान पाती।"
ऐसे ही पण्डितों के कारण पण्डित शब्द का गौरव कट गया है। कबीरदास ने ऐसे पण्डितों की खूब खबर ली है
पण्डित वाद बदै सो झूठा ।। राम के कहे जगत् गति पावै, खांड कहै, मुख मीठा ।
भावार्थ स्पष्ट है । कोरे शास्त्र-व्याख्यान करने से कैसे तर सकता है ? अतः कबीर ने तो साफ-साफ कह दिया है-केवल शास्त्रज्ञ पण्डित नहीं हो सकता, उसे जीवनज्ञ होना चाहिये।
पर दिखाई कुछ ऐसा दे रहा है कि आज अधिकांश पण्डित कोरे शास्त्रज्ञ रह गये, उनका जीवन शास्त्रज्ञान में अटका रह गया, वस्तुतः वास्तविक खोज जीवन में होती है । कबीर ने शास्त्रज्ञ और जीवनज्ञ का भेद बता दिया है
चारि वेद पढ़ाई करि, हरि सुन लाया हेत ।
बालि कबीरा ले गया, पण्डित ढूँढ़े खेत ॥ इसका यह आशय है कि ग्रन्थों को मथ डाला, लेकिन परमात्मा के प्रति प्रीति न बढ़ी । कबीर को स्वरूपाचरण की बाली मिल गई और पण्डित खेत ढूंढता रह गया। मध्यकाल में पण्डित जीवन का मैदान छोड़कर कहीं और भाग खड़ा हुआ; असलियत से आँख चुराई; वास्तविकता से पलायन किया। वह वाक्चातुर्य में फंस गया, कर्मकाण्डी हो गया। पाण्डित्य का स्थान पण्डिताई ने ले लिया। उसके पीछे पण्डिताई लग गई।
समाज का प्रबुद्ध वर्ग पण्डित उसे कहता है, जो भोला-भाला है, सीधा है, अनुभवहीन है, दयनीय है, जिसे आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है, जो देशी भाषाएं या संस्कृत पढ़ाता है, पूजा-पाठ कराता है या जो, साधु-संन्यासियों का जहाँ प्रवेश नहीं हुआ या पदार्पण कठिनता से होता है, वहाँ शास्त्र सुनाता है, या किन्हीं पाठशालाओं में पढ़ाता है, या विवाहादि कार्य सम्पन्न कराता है, ज्योतिष या वैद्यक के प्रयोग बताकर जीविका चलाता है या मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाता है, जो थोथे उपदेश देता है । ऐसा पण्डितवर्ग जीवन से विच्छिन्न होकर बड़ी-बड़ी डींगें मारता है। संतों को यह कांटे की तरह खटका कि पण्डित केवल आचरणशून्य शास्त्र में चला गया है। इस कारण वह असार वस्तु को अपनाने लगता है और सार वस्तु को फेंक रहा है। रैदास जैसे अनुभवी सन्त ने कहा
थोथो जनि पछोरौ रे कोई, सोई रे पछोरौ, जा में निजकन होई । थोथा पण्डित थोथी बानी, थोथी हरि बिन सबै कहानी ।।
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