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पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों
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यस्तु क्रियावान स एव पण्डितः -जो ज्ञान के साथ-साथ क्रियावान है--आचरण में सक्रिय है, वही पण्डित है । जो ज्ञानव्यसनी तो लगता है, किन्तु आचरणशून्य है, उसे पण्डित कैसे कहा जा सकता है ?
विक्रम की ११वीं शताब्दी में रामसिंह मुनि ने 'सावयधम्मदोहा' में पण्डित के चरित्र को आध्यात्मिक कसौटी पर कसा और पाया कि पण्डित, जो कभी आध्यात्मिक ज्ञानयुक्त जीवन जीता था, आज वह कोरा शास्त्रज्ञ रह गया है। उसका नाता परमार्थरूपी कण से न रहकर ग्रन्थ और उसके अर्थरूपी भुस्सा से हो गया है। अतः उन्होंने पण्डित पर करारी चोट की
पंडित-पंडित पंडिया, कण छंडिवि तुस खंडिया।
अत्थे गंथे तुट्ठोसि, परमत्थु ण जाणइ मूढोसि ॥ -हे अतिशय पाण्डित्य के धनी पण्डित ! तूने धान्यकण को छोड़कर तुस (भुस्सा) ही कूटा है। तुझे ग्रन्थ और अर्थ से सन्तोष है। परमार्थ को तू नहीं जानता, इसलिये पण्डित कहलाकर भी मूढ़ है।
ऐसे पण्डितों से दूसरों को क्या मिल सकता है, जो खुद ही अन्धेरे में हों? दूसरों को ज्ञान देने वाले, व्याख्यान बघारने वाले पण्डित जब स्वयं अपनी गुत्थी नहीं सुलझा सकते, वे पण्डित नहीं, मूढ़ हैं । संत कबीर ने ऐसे ही पण्डितमानियों के लिये
कहा है
पण्डित और मशालची दोनों सूझे नाहीं।
औरन को करै चांदना, आप अन्धेरे मांही ।। . भावार्थ स्पष्ट है।
एक जगह बहुत-से पण्डितमानी इकट्ठे होकर वाद-विवाद कर रहे थे। विवाद का विषय था
पण्डिते च गुणाः सर्वे, मूर्खे दोषा हि केवलम् अर्थात्-पण्डितों में तो सब गुण ही गुण हैं, और मूर्ख में केवल दोष ही दोष हैं।
पर्याप्त वाद-विवाद के बाद सर्वसम्मति से यह तय हुआ कि पण्डित में और तो सारे गुण ही गुण हैं, दोष केवल मूर्खता का है। इस अनूठे अर्थ की खोज करके सभी फूले नहीं समा रहे थे। पण्डित का आभूषण मूर्खता है तो वह पण्डित हुआ ही कैसे ? इसीलिए महर्षि गौतम ने स्पष्ट कह दिया'जो वास्तव में पण्डित हो, उसी से पूछो'
निःसार का उपासक पण्डित नहीं जो लोग स्वयं अविद्यामूर्ति हैं, उनसे कुछ भी पूछना व्यर्थ है। तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में स्पष्ट कहा है
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