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________________ जितात्मा ही शरण और गति-२ ४६ सांसारिक हो जाती है। ऐसी स्थिति में अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, सामर्थ्य का भण्डार, नित्य, शाश्वत और अविनाशी आत्मा अपनी शक्ति को भूलकर इन इन्द्रियों की गुलाम बन जाती है। कदाचित् मनुष्य बौद्धिक बल के आधार से शास्त्रों और ग्रन्यों से रट-रटाकर आत्मज्ञान पा भी ले तो वह केवल तोतारटन होगा, उस ज्ञान के अनुभवयुक्त न होने से अथवा आचरण से रिक्त होने से व्यक्ति इन्द्रियों के विविध प्रलोभनों से जल्दी छूट नहीं पायेगा । इसलिए इन्द्रियविजय के लिए सर्वप्रथम उसे इन्द्रियसंयम का अभ्यास करने की आवश्यकता है । जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है । जितेन्द्रिय का लक्षण मनुस्मृति में इस प्रकार दिया गया है श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च द्रष्ट्वा च, भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। न हृष्यति क्लायति वा, स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ॥ -निन्दा-प्रशंसा सुनकर, सुखद-दुःखद कोमल-कठोर वस्तु को छूकर, सुरूप-कुरूप को देखकर, सरस-नीरस वस्तु को खाकर तथा सुगन्ध-दुर्गन्ध वस्तु को सूंघकर जिसे हर्ष-विषाद नहीं होता उसे जितेन्द्रिय समझना चाहिए। जो व्यक्ति इन्द्रियों में आसक्त हो जाता है, उसकी सारी चेष्टाएं, कुत्सित, घृणित, अदूरदर्शी एवं क्षणिक सुखोपभोग के आसपास ही चक्कर लगाया करती हैं । क्षणिक इन्द्रियविषयसुखों से लक्ष्यपूर्ति में कोई सहायता नहीं मिलती। उलटे, शक्ति के अपव्यय से निराशा, उत्तेजना, असंतुष्टि और ग्लानि पैदा होती है । विषयभोगों में या भोग्यपदार्थों में मनुष्य को वास्तविक सुख नहीं मिल सकता । जिसे हम,सुख समझते हैं, उसके बदले में बड़े दुःख के रूप में मूल्य चुकाना पड़ता है । जब तक वह काल्पनिक सुख नहीं प्राप्त होता, तब तक प्राप्त करने की बेचैनी, फिर भोगते ही समाप्त हो जाने पर पुनः नये सिरे से इन्द्रियों को प्रेरित करना पड़ता है, बार-बार विषयसेवन से रोग, क्लेश, दुःख, ग्लानि, शक्तिव्यय, शोक, पश्चात्ताप आदि न जाने कितनी हानियाँ उठानी पड़ती हैं। कोल्हू के बैल की तरह विषयभोगों की अन्धी दौड़ में मनुष्य को कितना हैरान होना पड़ता है ! अतः बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों को बाह्यविषयों में स्वच्छन्द न भटकने देकर आत्मा की विकास यात्रा में इन्हें सहायक बनाए, आध्यात्मिक उत्कर्ष में इन्द्रियों का उपयोग करे । इन्द्रियविजय का अर्थ इन्द्रियों को बंद करके या गठेड़ी बांधकर रख देना नहीं है, अपितु इन्द्रियों पर संयम और सावधानी रखी जाये । इन्द्रियां जब भी विषयों की ओर दौडें, तब उन्हें सावधानी से सम्हाला जाये, देखभाल रखी जाये और उनकी शक्ति को बर्बाद न होने दिया जाये, जिससे आत्मा की विकास यात्रा निर्विघ्नता से पूर्ण हो सके । इसीलिए उपनिषद्कार एक रूपक द्वारा इसे समझाते हैं १. मनुस्मृति २/९८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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