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आनन्द प्रवचन : भाग ११
आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु । बुद्धि तु सारथिं विद्धि, मनः प्रगहमेव च ॥ इन्द्रियाणि हयानाहु विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रिय-मनोयुक्तो भोक्त त्याहुर्मनीषिणः॥ अर्थात्-शरीर एक रथ है, आत्मा इस पर आरूढ़ होने वाला रथ का स्वामी (रथी) है। आत्मा को यह रथ मोक्ष पाने के लिए मिला है। इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं, ये विषयों की सड़क या गोचर भूमि पर चलते हुए मुक्तियात्रा की ओर बढ़ते हैं, रथ का सारथी है-मनुष्य की बुद्धि या विवेक । यदि वह सजग है तो इन्द्रियाँ अनिष्ट विषयों में न भटककर कुशलतापूर्वक इन्द्रिय मनोयुक्त अपने स्वामी (आत्मा) को परमात्मा के निकट पहुँचा देती हैं।
निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों को उपयोग करना, विषयों को जानना एकान्ततः पापरूप नहीं है, ये अन्तःकरण की उचित क्षुधा-तृषा को तृप्त करने का माध्यम हैं। देखना, सुनना आदि इन्द्रियविषय भी आवश्यक है । शरीर को इन उचित आवश्यकताओं को समय पर पूर्ण नहीं किया जाये तो जीवन का सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिसका प्रभाव शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। यदि इनका सदुपयोग किया जाये तो मनुष्य निरन्तर जीवन का मधुर रसास्वादन करता हुआ उसे सफल बना सकता है । इन्द्रियाँ शत्रु तो तब तक हैं, जब तक इनका उपयोग बाह्य-जीवन के सुखोपभोग में करते हैं । इन्द्रियों की प्रबलता या सीमातिक्रमण या विषयलोलुपता ही आत्मकल्याण के मार्ग में प्रबल शत्रुता का काम करती है। गीताकार ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक इन्द्रिय के अर्थ (विषय) के साथ राग और द्वष सन्निहित हैं, जितेन्द्रिय को चाहिए कि उन (राग और द्वष) के वश में न हो; क्योंकि ये दोनों ही आत्मकल्याण के पथ में प्रबल शत्रु हैं।
जिन इन्द्रियों को आत्मविकास में विघ्नकारक समझा जाता है, वे ही (विषयों के प्रति राग-द्वेष न हो तो) आत्मकल्याण का कारण बन सकती हैं, मानसिक चंचलता और आन्तरिक मलिनता का उदय इन्द्रियों के असंयम से होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में ठीक ही कहा है
इन्द्रिय-द्वार झरोखा नाना, तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना । आवत देखहि विषय बयारी, ते हठि देहि कपाट उघारी॥ जब सो प्रभंजन उर गृह जाई, तबहिं दीप विज्ञान बुझाई। इन्द्रियसुरन्ह न ज्ञान सोहाई, विषयभोग पर प्रीति सदाई ॥
तात्पर्य यह है कि अनियंत्रित इन्द्रियाँ बलात् विषयों की ओर खींच ले जाती हैं, तब ज्ञान-विज्ञान का दीपक विषयों के प्रवल अंधड़ से बुझ जाता है । विषयों के प्रति राग-द्वेषों में स्वच्छन्द विचरण करती हुई इन्द्रियाँ विचार एवं विवेक से थोड़ी
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