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________________ जितात्मा ही शरण और गति - २ ५१ देर के लिए नियंत्रण में रखी जा सकती हैं । इतना करने से भी यह नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रियाँ आपके वश में हो गई । अनुकूल परिस्थिति या संयोग मिलते ही उनमें पुनः प्रबल उत्तेजना उठे बिना नहीं रहती । ऐसी स्थिति में विचार-शक्ति कुंठित हो जाती है; एक आवेश के साथ विद्वान् माने जाने वाले लोग भी बलात् "उन दुर्विषयों से जनित दुष्कर्मों की ओर खिंच जाते हैं । विचार जब तक सुदृढ़ नहीं होते तब तक यह खतरा उपस्थित हो सकता है, इसलिए अपने प्रत्येक विचार को संकल्प का रूप देना चाहिए। बहुत हो सतर्कता और सूक्ष्मता से यह देखते रहना चाहिए कि इन्द्रियाँ कहीं स्वच्छन्दता से हमें बलात् घसीट तो नहीं रही हैं । इन्द्रियों का स्वभाव जानकर उन्हें सही मार्ग पर चलाएँ । अपनी आन्तरिक निर्मलता बनाये रखने से इन्द्रियाँ सहसा उन्मार्ग में नहीं जातीं, संयमित होने लगती हैं । द्व ेष, घृणा, ईर्ष्या, मोह, क्रोध आदि से अन्तःकरण मलिन व दूषित बनता है, तब मनोभावनाओं में मंत्री, आत्मीयता, सहानुभूति, दया, क्षमा आदि की प्रचुरता होती है तो आन्तरिक पवित्रता या श्रेष्ठता स्थिर रहती है । जब तक ऐसी स्थिति बनी रहती है, तब तक सहसा दूषित विकार उत्पन्न नहीं होने पाते और इन्द्रियाँ नियंत्रित बनी रहती हैं । सबसे आसान उपाय यह है कि अपना अधिकांश समय स्वाध्याय, तत्त्वचिन्तन, आत्मा और परमात्मा के चिन्तन-मनन में या किसी महान् सत्कार्य, सेवाकार्य आदि में लगाये रखें। जितनी देर तक आपका मन आन्तरिक शक्तियों के विचार क्षत्र में डूबा रहेगा उतनी देर तक इन्द्रियविषय शान्त रहेंगे । फिर भी यदि वे उठते हैं तो भक्तिमार्गियों ने एक समर्पणात्मक उपाय बताया है— इन्द्रियों के बहलाने का, उसे अजमाया जा सकता है गोविन्दं प्रणमोत्तमांग ! रसने ! तं घोषयाहर्निशम् । पाणी ! पूजय तं मनः ! स्मर पदे ! तस्यालयं गच्छताम् ॥ हे सिर! तुम गोविन्द को प्रणाम करो, हे रसना ! तुम रातदिन उसके नाम का रटन करो, ऐ दोनों हाथो ! तुम उसकी पूजा-सेवा करो, हे मन ! उसका स्मरण करो और हे पैरो ! तुम उसके देवालय की ओर जाओ । आँखो ! तुम उसे देखो, कानो ! तुम उसे ही सुनो । इत्यादि तरीके से इन्द्रियविषयों के अधम उपयोग से बचने की युक्ति भक्तिमार्गियों ने बताई है । ज्ञानी आत्मा सम्यग्ज्ञानपूर्वक इसे आत्मरमण की युक्ति बना सकता है । आप भी वीतराग प्रभु के नाम-जप आदि के रूप में कोई भी उपाय आजमा सकते हैं । मूल बात है - मन का संकल्पवान् होना, उसी से इन्द्रियों और उनके विषयों पर यथोचित नियंत्रण रखा जा सकता है । इन्द्रियों को आत्मा की शत्रु नहीं, सेविकाएँ मानना चाहिए | ये अमर्यादित और स्वेच्छाचारिणी होती हैं, तभी जीवनलक्ष्य से गिराती हैं, किन्तु इनका सदुपयोग आत्मकल्याण में साधक बनता है । यही जितेन्द्रियता का रहस्य है । 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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