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आनन्द प्रवचन : भाग ११
तप के बारह भेदों में से एक भेद है - प्रतिसंलीनता । औपपातिक सूत्र में प्रतिसंलीनता के चार प्रकार बताये हैं - १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. योग प्रतिसंलीनता, ३. कषाय प्रतिसंलीनता और ४. विविक्त शयनासनप्रति संलीनता ।
इन्द्रियदमन या इन्द्रियनिग्रह के लिए यहाँ इन्द्रियप्रतिसंलीनता शब्द प्रयुक्त है । योगदर्शन में प्रत्याहार शब्द का जो अर्थ है, उससे विशद अर्थ है - प्रतिसंलीनता का । इन्द्रियप्रति संलीनता का अर्थ है— इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अपने -अपने गोलक में स्थापित कर देना । जैसा कि शंकराचार्य ने 'दम' का अर्थ किया है
विषयेभ्यः परावर्त्य, स्थापनं स्वस्वगोलके । उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः ॥
वास्तव में इन्द्रियों की गति बाहर की ओर है । आँख बाहर की ओर देखती है, कान बाहर की बात सुनता है, जीभ बाहर की वस्तु चखती है, नाक भी बाहर की गन्ध को ग्रहण करती है, स्पर्शेन्द्रिय भी बाहर की वस्तु का स्पर्श करती है । इस प्रकार इन्द्रियों का बाह्य जगत् से जो सम्पर्क है, उसे विच्छिन्न करके आन्तरिक जगत् से सम्पर्क स्थापित करा देना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का प्रयोजन है । इसके लिए समस्त इन्द्रियविषयों से उपरम मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, ताकि इन्द्रियाँ बाहरी विषयों से अपना सम्बन्ध तोड़ सकें । इस प्रकार के इन्द्रियप्रतिसंलीनता के अभ्यास से भी मनुष्य जितेन्द्रिय हो जाता है ।
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शरीरविजयी — यद्यपि इन्द्रियों पर विजय के साथ-साथ शरीर पर विजय हो जाती है; तथापि शरीरविजय के अन्य पहलू भी हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है । शरीर - विजय से तात्पर्य है —शरीरासक्ति पर विजय । शरीर धर्मपालन के या आत्म-विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है, इसलिए साधनाकाल में शरीर का सर्वथा त्याग कथमपि अभीष्ट नहीं है वैसे ही शरीर के प्रति मोह-ममत्व रखकर इसका अत्यधिक लाड़-प्यार करना भी अभीष्ट नहीं है । शरीर एक रथ है । यह टूटा-फूटा, कमजोर या विषम होगा तो अपने गन्तव्य स्थान पर कदापि नहीं पहुँचा सकेगा, अधबीच में ही मनुष्य को धोखा दे देगा; विषय-वासनाओं और वैषयिक पदार्थों के बीहड़ में भटकाकर नष्ट कर देगा । शरीर की इस अशक्ति का प्रभाव मनुष्य के मन पर भी पड़ता है । मन की क्रियाओं की अभिव्यक्ति शरीर पर से होती है । मन जब भय आदि से काँपता है, तो वाणी, हाथ-पैर आदि सब अंग काँपने लगते हैं। मन में संदेह हो तो वाणी अस्पष्ट, आँखें स्थिर और अंग-प्रत्यंग की क्रियाएं ढीली हो जाती हैं, रोयें खड़े हो जाते हैं । मन के चौंकने से कान खड़े हो जाते हैं मन जब क्रुद्ध होता है तो सांस की गति बढ़ जाती है, चेहरा लाल हो जाता है । पुत्रवात्सल्य से आनन्द विह्वलमन होने पर माता के स्तनों से दूध टपकने लगता है । मनोभावों को दबाने से अनेक विकार एवं रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
शरीर की मुख्य आवश्यकताएं हैं—आहार, वस्त्र, आवास तथा अन्य सुख
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