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जितात्मा ही शरण और गति-२
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सुविधाएं । आहार शरीर की सबसे बड़ी आवश्यकता है, किन्तु केवल स्वादलालसा से माहार करने से, प्रतिदिन अत्यन्त गरिष्ठ, पौष्टिक, तामसिक भोजन करने से शरीर की क्षति ही अधिक होती है, अतिमात्रा में आहार करने का परिणाम तो आप जानते ही हैं । ऐसा करने से अनेक रोग पैदा होंगे, ब्रह्मचर्य का नाश होगा, इसलिए आहारविहार पर संयम रखना शरीरविजय के लिए अनिवार्य है। यही हाल वस्त्र और भावास का है। उनके उपभोग की भी एक सीमा निर्धारित न हो तो मनुष्य को अनेक दु:ख आ घेरेंगे । सीमातिक्रमण करके वस्त्रादि की प्राप्ति और उसके पश्चात् उसकी सुरक्षा आदि की चिन्ता में अनेक संक्लेशों का सामना करना पड़ता है। शरीर को सात्त्विक और उचित मात्रा में संतुलित आहार चाहिए, परन्तु असंयमी मनुष्य इसके बदले मांस, मत्स्य आदि या अत्यधिक मिर्च-मसाले वाले तले हुए चटपटे गरिष्ठ या तामसिक भोजन का उपभोग करके शरीर को नष्ट कर डालता है, दूध आदि सात्त्विक पेय के बदले शराब, भांग, गांजा, अफीम, बीड़ी, सिगरेट आदि नशैली मादक उत्तेजक वस्तुओं का सेवन करके शरीर तो बिगाड़ता ही है, साथ ही अपने में अपराधी और करवृत्ति को जन्म देता है, जीवन को अशान्त बना देता है, ज्ञान-तन्तुओं को उत्तेजित कर देता है । धीरे-धीरे शरीर अनेक रोगों का घर बन जाता है ।
पाश्चात्य देशों में इस प्रकार की आवश्यकताओं का अतिक्रमण करके लोग अशान्त हैं, वे अनेक रोगों से पीड़ित हैं, खासतौर से वे अनेक मानसिक रोगों के शिकार हैं। अमेरिका में ११ व्यक्तियों में से एक मानसिक शान्ति के लिए अनेक दवाइयां लेता है, नींद के लिए गोलियों का उपयोग करता है । ऐसी दवाइयों की शोध पर अमेरिका में १०० करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च किये जाते हैं। ये आँकड़े बताते हैं कि अमेरिका में लोग कितने अशान्त हैं।
शरीर श्रम का काम जहाँ मशीनों से लिया जाता है, वहाँ के लोग शारीरिक श्रम न करने के कारण पंगु, आलसी, अकर्मण्य, पराधीन और अशक्त बन जाते हैं। उन्हें प्रतिदिन कोई न कोई दवा लेनी पड़ती है। इस प्रकार शरीर का सन्तुलनसंयम न रखने से लोग असंयमी और पराधीन बन जाते हैं। ऐसे लोग न तो कोई आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं और न ही किसी प्रकार की शारीरिक मानसिक उन्नति ।
सुख-सुविधाएं बढ़ाने से शरीर-सुख बढ़ते हैं, इस भ्रम ने भारतीय जनता को और खासकर पाश्चात्य जनता को चौपट कर दिया है। शरीर पर चाहे जितनी सुख-सुविधाएं लादी जाएं, वह सुखी नहीं होता, सुख और शान्ति का सम्बन्ध तो मन से है । इसलिए अतिसुखभोग की कल्पना से भारतीय और पश्चिम के लोग आज अशान्त एवं रोगाक्रान्त बने हुए हैं। शरीर में वीर्य से उत्पन्न होने वाली शक्ति और स्फूर्ति, उत्साह और पराक्रम आत्मविकास की यात्रा के लिए उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य है। शरीर में बल-वीर्य की प्रचुरमात्रा न रहे तो वह आत्मिक आदेशों का पालन कैसे कर सकेगा ? इसलिए जैसे वीर्य रक्षा आवश्यक है; वैसे ही शरीर
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