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________________ ૪ आनन्द प्रवचन : भाग ११ को अनावश्यक खान-पान, ऐश-आराम तथा निरर्थक सुख-सुविधाओं से लादकर उसकी शक्तियों का रोग, क्लेश, अशान्ति, दुःख, चिन्ता, ईर्ष्या, अहंकार, काम, क्रोध आदि से क्षय कर डालने से बचाना भी आवश्यक है । अत्यधिक वीर्यपात, कामुकता, संभोगक्रिया, खानपान के असंयम, सुख-सुविधाओं का अतिमात्रा में उपभोग आदि ये सब शारीरिक शक्ति का ह्रास करने वाले हैं । इनसे मनुष्य की बुद्धि भ्रान्त होकर आत्मकल्याण का मार्ग छोड़ देती है । शक्ति का क्षरण हो जाने से शरीर की सहनशक्ति खतम हो जाती । अगर मनुष्य अपने शरीर पर संयम रखे, तो उससे शारीरिक शक्तियाँ का असाधारण विकास सम्भव है । गीता में इसे सुखदायक योग बताकर कहा है युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ -जो व्यक्ति युक्त आहार-विहार करता है, कर्त्तव्य कर्मों में युक्त चेष्टा (श्रम) करता है, जिसका सोना- जागना युक्त है, उसके लिए योग दुःखनाशक होता है । राममूर्ति जैसे पहलवान शरीरसंयमरूप योग से ही असाधारण शक्ति के धनी हो सके थे। जिन लोगों ने शरीर के प्रति असंयम रखा है, कामवासना की भट्टी में, स्त्री-शरीर के प्रति आकर्षित होकर शरीर को झौंका है, रुपहली चमक के पीछे अपने आत्मकल्याण को विस्मृत कर दिया है, उनके शरीर सूखे, निस्तेज, निर्वीर्य, शक्तिहीन दिखाई देते हैं । उन्होंने अपने शरीर की विद्युतृशक्ति, प्राणशक्ति और ऊर्जाशक्ति का अनावश्यक दुरुपयोग किया है, जिससे दुःखी, रोगी, अशान्त और अप्रसन्न दिखाई देते हैं । सचमुच वे अपने हाथों से अपनी शक्ति को नष्ट करने का अपराध करते हैं । शरीर के लिए बाह्यपदार्थों का अत्यधिक उपभोग भी सुख का कारण नहीं है । इस शरीर विज्ञान को समझकर शरीर को यथायोग्य नियंत्रण में रखना ही शरीरासक्ति पर विजय है । कायोत्सगं द्वारा भी शरीर के प्रति ममत्व और अध्यास को छोड़ने का अभ्यास किया जा सकता है और विविध बाह्य आभ्यन्तर तप के द्वारा भी । वे शरीररूपी अश्व के रईस बनो, सईस नहीं - शरीरविजेता का अर्थ यह भी है कि शरीर के दास नहीं, स्वामी बनना । शरीर का दास बनने वाला व्यक्ति रात-दिन शरीर की परिचर्या करने में जुटा रहता है, उसे और कुछ नहीं सूझता । वह शरीर भाव से उपर नहीं उठ पाता । शरीर को ही सर्वस्व समझता है, शरीर ही उसका सब कुछ है । परन्तु शरीर का स्वामी बनने वाला उससे यथोचित धर्मकार्यं लेता है, संयम पालन करता है, तप जप की आराधना करता है, शरीर गलत मार्ग पर चलता है तो वह रोकता है । एक जगह विद्यालय के दीक्षान्त समारोह के समाप्त होने के बाद दो स्नातक आचार्य के पास विदाई - आशीर्वाद लेने आये । उन्होंने आचार्य चरणों में सविनय नमस्कार करके अन्तिम उपदेश देने की प्रार्थना की । आचार्यश्री ने कहा - " वत्स ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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