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________________ जितात्मा ही शरण और गति–२ ५५ जाओ, रईस की संगति करो, स्वयं रईस बनो।" इस आशीर्वाद से दोनों स्तब्ध रह गये । सोचा-आज तक गुरुजी ने ऐश्वर्य, धन, विलासिता आदि से सावधान रहने का सदैव उपदेश दिया था, किन्तु आज विदाई वेला में वे कैसा विरोधी उपदेश दे रहे हैं -रईसों की संगति करने और स्वयं रईस बनने की ! दोनों शिष्यों-स्नातकों की मुखाकृति पर से गुरुजी समझ गये कि वे असमंजस में पड़े हैं। अतः अपनी भावना को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा-मैंने तुम्हें रईस बनने को कहा है, सईस नहीं। रईस और सईस में बड़ा अन्तर है, समझ लो। देखो, यह शरीर एक घोड़ा है। सईस सबेरे उठकर घोड़े का सानी-पानी, गारसंभाल, और ऐसी ही खबरदारी करता है, खुरपा करता है, नहलाता है, दाना-पानी देता है, कुछ घुमाता है फिर उसे चरागाह ले जाता है या हरी घास काटकर खिलाता है । धूप-वर्षा से उसकी रक्षा करता है। सुबह उठने से रात को सोने तक हर समय उसकी सेवा-चाकरी में लगा रहता है। सईस नौकर है, दास है, स्वामी नहीं। और रईस वह है, जो उस पर लगाम डालकर सवारी करता है, वह उसे अपनी मंजिल की ओर सरपट दौड़ाता है, ठीक न चलने पर कोड़े भी लगाता है । कुमार्ग में मुड़ने पर लगाम खींचकर रोकता है। वह शरीररूपी घोड़े का स्वामी है। वह उसके कदम परमार्थ की मंजिल की ओर बढ़ाता है । दाना-पानी देने का ध्यान रखते हुए भी उसका उद्देश्य अश्व पर सवारी करना है। मैं भी यही चाहता हूँ कि तुम इस शरीररूपी अश्व के रईस यानी स्वामी बनो, सईस यानी दास न बनो। दूसरे शब्दों में कहूँ तो केवल शरीर को ही सब कुछ समझने वाले बहिरात्मा न बनो, किन्तु शरीर को आदेश देकर धर्माराधना में लगाने और उस पर संयम (नियंत्रण) रखने वाले अन्तरात्मा बनो । यही मेरे उपदेश का तात्पर्य है। दोनों स्नातक गुरुचरणों में नतमस्तक होकर सहर्ष विदा हुए। बन्धुओ ! शरीरविजय का रहस्य भी यही है कि शरीर के स्वामी बनो, दास नहीं । इस प्रकार जितात्मा का अन्तिम लक्षण यह है कि वह अपने मन, इन्द्रियों और शरीर पर विजय प्राप्त कर चुका हो । इसी बात को उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं ॥ -२३/३६ —गौतमगणधर कहते हैं "एक (मन) को जीतकर मैंने पाँचों (इन्द्रियों) को जीत लिया, और पांच को जीतकर दस (१ मन, ५ इन्द्रियाँ और ४ कषाय यों कुल १०) को जीत दिया। और दस को जीतकर मैं सर्वशत्रुओं को जीत लेता हूँ।" यों जितात्मा के ७ लक्षण मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं, इनके प्रकाश में आप चिन्तन-मनन करें, और अपने जीवन में जितात्मा के इन गुणों को लाने का प्रयत्न करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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