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आनन्द प्रवचन : भाग ११
जितात्मा ही शरण्य और प्रगतिप्रेरक - गौतम महर्षि कहते हैं जो जितात्मा होता है; वही दूसरों को भव्य और जिज्ञासु आत्माओं को शरणदाता और प्रगतिप्रेरक हो सकता है। जो व्यक्ति स्वयं लक्ष्य के प्रति पुरुषार्थ करने से जी चुराता है, संकट आने पर जिसका धैर्य जवाब दे देता है, जो बौद्धिक सन्तुलन नहीं रख सकता, जिसकी बुद्धि यथार्थ हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकती, जो अपने स्वभाव में स्थिर नहीं रह सकता, अपने आप पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता, जो परमात्मपद को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न नहीं कर सकता, तथा मन, इन्द्रियों और शरीर पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, तनमन और इन्द्रियों का गुलाम बना हुआ है, शरीरासक्त है, जीवनमोही है, विषयभोगों का लोलुपी बना हुआ है, वह स्वयं ही अपने स्वरूप में स्थिर नहीं है, तब दूसरों को क्या खाक शरण देगा? जो स्वयं ही देहाध्यास में सराबोर है, वह आत्मविकास के लिए दूसरों को गति-प्रगति का मार्ग कैसे बतायेगा ? संत कबीर ने ऐसे लोगों के लिए उचित ही कहा है
पानी मिले न आप को, औरन बकसत छीर ।
आपन मन निसचल नहीं, और बँधावत धीर ।
भावार्थ स्पष्ट है। जो व्यक्ति पोथियों से रट-रटाकर जितात्मा बनने का उपदेश दूसरों को देता है, परन्तु स्वयं में जितात्मा के लक्षण नहीं उतारता, वह व्यक्ति भी दूसरों के लिए शरणदाता और गति-प्रगति का मार्गदर्शक कैसे हो सकता है ? नेता वही होता है, जो दूसरों को साथ लेकर चलता है। पर जो दूसरों के मन को पढ़ नहीं सकता, अपने मन की स्वच्छता का प्रतिबिम्ब दूसरों के मन पर नहीं डाल सकता, वह दूसरों को साथ लेकर चल नहीं सकता अतः नेता नहीं हो सकता। जिसके जीवन में जितात्मा का स्वरूप रोम-रोम में रम गया है, जिसे स्वयं अनुभव करके जितात्मपद को प्राप्त किया है, वही उन व्यक्तियों के लिए शरणदाता हो सकता है, जो शरीर, मन, इन्द्रियों, भौतिक पदार्थ आदि के वशवर्ती बनकर दुःखी और भयत्रस्त बने हुए हैं, साथ ही जो आगे बढ़ने के लिये मार्गदर्शन चाहते हैं, उन्हें भी वही मार्गदर्शन दे सकता है। इसीलिये गौतम महर्षि का अनुभवसिद्ध उद्गार है
अप्पा जियप्पा सरणं गई अ।. आप भी जितात्मा बनने का प्रयत्न कीजिए।
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