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६३. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं जीवन के एक महान् सत्य का उद्घाटन करने जा रहा हूँ। गौतमकुलक का यह ५१वां जीवनसूत्र है, जिसमें धर्मप्रेमीजनों के समक्ष जगत् के अनेक कार्यों में श्रेष्ठ कार्य का निर्णय प्रस्तुत किया गया है। उसका अक्षरात्मक रूप इस प्रकार है
"न धम्मकज्जा परमत्थि कज्जं" -धर्मकार्य से बढ़कर श्रेष्ठकार्य और कोई नहीं है।
प्रश्न होता है-धर्मकार्य किसे कहते हैं ? उसकी पहचान क्या है ? तथा उससे बढ़कर श्रेष्ठकार्य और क्यों नहीं है ? आइए, इन प्रश्नों पर गहराई से विचार कर लें। धर्मकार्य क्या है, क्या नहीं ?
सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि धर्मकार्य क्या है ? हम किसे धर्मकार्य कहें या समझें? मेरी दृष्टि से धर्मकार्य वह है, जिससे आत्मशुद्धि हो, संवर (नये कर्मों का निरोध) और सकाम निर्जरा (कर्मों का आंशिकरूप में क्षय) हो, मुक्ति की ओर बढ़ने-बढ़ाने का कार्य हो, जिस कार्य से मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) की आराधना हो, जिस कार्य में साध्य, साधन और साधक तीनों शुद्ध हों, जो कार्य निःस्वार्थ, निष्कामभाव से यश-कीर्ति, प्रसिद्धि आदि से रहित भावना से किया जाये।
इस परिभाषा की कसौटी पर प्रत्येक कार्य को कसा जाये तो आसानी से पता लग सकता है कि यह धर्मकार्य है या और कोई कार्य ? संसार में अनेक प्रकार के कार्य होते हैं। एक होता है सामान्य शारीरिक कार्य, आहार, विहार, नीहार, निद्रा आदि दैनिक कार्य हैं, जिन्हें न तो धर्मकार्य कहा जा सकता है और न ही अधर्मकार्य । मगर इन्हीं कार्यों को विवेकपूर्वक करने से मनुष्य पामकर्मबन्ध से बच सकता है। साथ ही आहारादि के दान से अथवा किसी की सेवा के लिये निद्रात्याग आदि से धर्म भी हो सकता है, पुण्य भी, तथा इन्हीं कार्यो करें और उसमें धर्म लाभ न हो, ऐसा भी हो सकता है । यह तो मनुष्य की भावना और विवेक पर तथा पात्रता और विधि पर निर्भर है । कई बार मनुष्य किसी को दान देता है, पर शुद्ध भावों से नहीं, उसके
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