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________________ ५८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पीछे नामना-कामना या प्रसिद्धि के भाव रहते हैं तो वहाँ पुण्य हो सकता है, धर्म नहीं । यदि दान की भावना के पीछे आशय कलुषित है, किसी को हानि पहुँचाने, मारने या ठगने की भावना से दान देता है तो वहाँ दान धर्म और पुण्य का कारण नहीं होता। __ इसी प्रकार प्रत्येक अच्छे समझे जाने वाले कार्य के पीछे तीन प्रकार की परिणति होती है-शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुभ-परिणति से कार्य करने पर पुण्य, अशुभ-परिणति से कार्य करने पर पाप और शुद्ध-परिणति से कार्य करने पर धर्म होता है । आप इसी गज से सभी सत्कार्यों को माप लीजिए। आपको हथेली में रखे हुए आंवले की तरह स्पष्ट ज्ञात हो जाएगा कि यह धर्मकार्य है, यह पुण्यकार्य है, और यह पापकार्य है। जैसे-दान के कार्य को आमतौर पर धर्म समझा जाता है। परन्तु उस दानकार्य के पीछे जरा स्वार्थ-भावना, यशकीर्ति, नामवरी या अन्य कोई सौदेबाजी की भावना हुई तो वह दान धर्मकार्य की कोटि में न आकर पुण्यकार्य की कोटि में आ जायेगा, परन्तु उक्त दान के पीछे अगर कोई नामना-कामना, प्रसिद्धि या यशकीर्ति की भावना नहीं है, निःस्पृह या निष्कामभाव से कोई व्यक्ति शुद्ध सात्त्विक वस्तु का योग्य सुपात्र को दान करता है, तो समझ लीजिये वह दान धर्मकार्य है। परन्तु इन दोनों से अतिरिक्त कोई व्यक्ति अपने पापों पर पर्दा डालने की दृष्टि से, या किसी मूढ महास्वार्थवश अथवा दूसरों की कोई चीज लेने की नीयत से दान देता है तो वह दान न तो धर्मकार्य होगा, न पुण्यकार्य ही; वह पापकार्य की कोटि में परिगणित हो जाता है। धर्मकार्य का दान-यह शुद्ध भावनापूर्वक किया जाता है, त्यागी, सुपात्र व परोपकारी व्यक्ति को सेवा, करुणा, दया, ज्ञानदान आदि की भावना के साथ नि:स्वार्थभाव से जो दिया जाता है, वह दान धर्मकार्य की कोटि में आ सकते हैं। पुण्यकार्य की कोटि का दान-पुण्यकार्य की कोटि के दान में दान देने वाले को बदले में अपने नाम, यश या प्रसिद्धि की या किसी को परलोक में स्वर्गादि की कामना रहती है। वह शुभ भावना से ही दान देता है, पर उसके दान के साथ प्रतिफल की आकांक्षा रहती है, इसलिए वैसा दान पुण्यकार्य की कोटि में आता है। ___ आपने देखा होगा कि कई जगह उपाश्रयों, मन्दिरों या धर्मस्थानों में कई लोगों के नाम की तख्ती लगी रहती है-"अमुक भाई.... ने ..." हजार रु० दिये।" यद्यपि यह दान भी अच्छी भावना से होता है, परन्तु दान के साथ जो विज्ञापन का अंश है, वह उसे धर्मकार्य की कोटि में नहीं जाने देता। विक्रम संवत् १६५६ में जैनाचार्य पूज्य श्रीलालजी म. विहार करते हुए सौराष्ट्र के एक गांव में पधारे । गाँव में प्रवेश करते ही कुछ झौंपड़े बने देख उन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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