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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ५६ ग्रामवासियों से उन झौंपड़ों के बनाने का उद्देश्य पूछा तो वे बोले-"महाराजश्री! इस साल इस प्रदेश में भयंकर दुष्काल पड़ा । ग्रामवासी लोगों को दुष्काल-पीड़ित देखकर हमारे गांव के बोहराजी स्वयं यहाँ आये । उनका हृदय करुणा से द्रवित हो उठा। इन बोहराजी की मां चक्की पीसकर गुजारा चलाती थी। इनकी आर्थिक स्थिति पहले बहुत खराब थी। मां के आशीर्वाद से उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई। किसी शहर में इन्होंने जमीन खरीदी थी। सौभाग्य से जमीन खोदते समय हीरे, पन्ने आदि जवाहरात निकले । बोहराजी का भाग्य चमका । गाँव की करुणाजनक स्थिति देखकर उन्हें अपने वे गरीबी के दिन याद आ गये । सोचा-'मेरे गाँव के लोग संकट में रहें, और मैं अकेला मौज से रहूँ, यह स्थिति मेरे लिए असह्य है। इस समय गाँव वालों का दुःख दूर करना मेरा कर्तव्य है । मेरे पास एक दिन कुछ नहीं था, लेकिन ग्रामनिवासियों की सद्भावना से आज मेरे पास कुछ सम्पत्ति हो गई है। अत: मुझे अकेले ही इस दुष्काल संकट का निवारण करना चाहिए।' वे ग्राम के बुजुर्गों से मिले, हाथ जोड़कर कहा-इस समय में आप लोगों की कुछ सेवा करना चाहता हूँ । गाँव वालों ने पहले तो कुछ आना-कानी की। बाद में बोहराजी की नम्रता और भावना देखकर उन्होंने भोजन लेना स्वीकार किया। बोहराजी ने तत्काल दो कड़ाह चढ़वाये । और अलग-अलग रसोइये रखकर हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग भोजन की व्यवस्था की । गाँव के सभी लोग यहीं भोजन करते हैं, दूसरे गाँवों के दुष्काल पीड़ित लोग भी। बोहराजी ने दुष्काल पीड़ितों के रहने के लिए ये झौंपड़े भी बनवा दिये हैं।" ग्रामवासी लोगों के प्रति बोहराजी की कर्तव्य भावना से दी गई दान की भावना को देखकर पूज्य श्रीलालजी म० ने प्रसन्नता व्यक्त की । यह है-पुण्यकार्य की कोटि का दान। पापकार्य की कोटि का दान-पापकार्य की कोटि का दान वह है, जिस दान से पापकार्य को प्रोत्साहन मिले, जो दान पापकार्य कराने के लिए दिया जाता हो । जो दान दूसरों को दुःख देने, ठगने, धोखा देने या कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दिया जाये वह दान भी पापकार्य की कोटि में आता है। चोर को चोरी करके माल मंगाने के लिए भेंट देना, चोर-डाकू को सहयोग देना, आश्रय देना अथवा मदिरालय, वेश्यालय, सिनेमा, नाचघर या मांस की दुकान आदि खोलने के लिए दान देना । तस्करी, हत्या, डाका आदि के लिए इनाम देनाये सब दान पापकार्य हैं। __यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं, कि वेश्या, चोर, डाकू आदि कोई भी व्यक्ति अत्यन्त दयनीय हालत में हो, उस समय उसे भोजन आदि अनुकम्पा लाकर देना (वेश्याकर्म आदि के लिए नहीं), अथवा, चोर आदि को वेश्याकर्म, चोरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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