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________________ ६. आनन्द प्रवचन : भाग ११ आदि छुडाने की दृष्टि से सहयोग देना पापकार्यजनक नहीं है, वह कार्य अनुकम्पादान की कोटि में आयेगा। जैसे दान की तीन कोटियाँ हैं, वैसे ही सेवा, परोपकार आदि सत्कार्यों की भी तीन कोटियाँ हो सकती हैं। सेवा भी धर्म, पुण्य और अधर्मरूप-बहुत-से लोग सेवा को एकान्त धर्मकार्य अथवा एकान्त पापकार्य कह बैठते हैं, कह अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद को नहीं समझने का फल है। जिस सेवा में दूसरे के प्रति कोई स्वार्थ, सौदेबाजी, लाचारी, विवशता, देखा-देखी, यशकीर्ति या प्रसिद्धि की भावना है, वह सेवा धर्मकार्य रूप नहीं बनती; वह या तो पुण्यकार्य बनती है, या फिर अधर्मकार्य रूप । एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट कर दूं जिस समय कलकत्ते में प्लेग का प्रकोप हुआ, उस समय स्वामी विवेकानन्द अपनी योग-साधना, ध्यान, उपासना आदि छोड़कर निःस्वार्थ भाव से रोगियों की सेवा करने-कराने में जुट गये। उन्होंने अपने सभी शिष्यों और साथियों को भी सेवाकार्य में लगा दिया। स्वामीजी को चिन्तित और सेवा में व्यग्र देखकर अनेक लोगों ने कहा-"आप तो एक संन्यासी हैं, योगी हैं, फिर यों साधारण मनुष्यों की तरह व्याकुल क्यों हैं ?" स्वामीजी ने उत्तर दिया-'योगी होने के कारण ही तो मैं इतना व्यग्र और चिन्तित हूँ। सारा विश्व ही मेरे लिए कुटुम्ब है । दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा के समान अनुभव करना ही योग है। हाँ, योगी की अपनी कोई पीड़ा नहीं होती, न ही अपना कोई दुःख होता है। दूसरों का दुःख-सुख ही उसका दुःख-सुख है। प्रत्येक प्राणी की पीड़ा को आज मैं अपनी पीड़ा महसूस करता हूँ, और उनकी सेवा को अपनी सेवा मानता हूँ।" पैसे की आवश्यकता होने पर जब स्वामी विवेकानन्द रामकृष्णमठ की भूमि बेचने को तैयार हुए तो उनके अनेक शिष्यों के कहा-"स्वामीजी ! यह तो आपके गुरुदेव के स्मारक की भूमि है, क्या आप इसे भी बेच देंगे ?" इस अवसर पर उन्होंने उत्तर दिया-"आवश्यकता पड़ने पर इन मठ-मन्दिरों का क्या होगा? जब तक इनकी उपयोगिता है, तब तक ये मठ, मन्दिर देवालय हैं, भगवान् के स्थान हैं, किन्तु जब वे पीड़ित मानवजाति के काम नहीं आते, तब मिट्टी के व्यर्थ स्तूपों के समान इनका कुछ भी मूल्य नहीं रह जाता। इस मठ का एक-एक कण पीड़ित मानव जाति की पीड़ा दूर करने में लगेगा, तो गुरुदेव की आत्मा को अधिकाधिक सन्तोष, शान्ति होगी। जो सम्पत्ति पीड़ितों के दुःखनिवारण और सेवा में काम नहीं आ सकती वह मिट्टी है । उसका होना, न होना समान है । इसी प्रकार जो मनुष्य पर-पीड़ा से कातर नहीं होता, दुःखी की सेवा नहीं करता, वह भी पृथ्वी पर भारभूत है, मानवता से दूर है। पीड़ितों की सेवा करना ही भगवान् की सच्ची सेवा-भक्ति है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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