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आनन्द प्रवचन : भाग ११
योग करे, कुमार्ग में चलने की हठधर्मी करे तो एक भी इन्द्रिय प्रयोजन की—काम की नहीं रहती। इसलिए पहले से ही मन को अपना सहयोगी और अनुकूल बनाने का प्रयत्य करना चाहिए । इसीलिए कठोपनिषद् में कहा गया है
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान् नरः।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति, तद्विष्णोः परमपदम् ॥ -जो मनुष्य विवेकी सारथी के समान अपनी जागृत और सतर्क बुद्धि के द्वारा मन की लगाम को वश में रखता है वह इस संसार से पार होकर परमात्मा के परमपद को प्राप्त करता है ।
जितेन्द्रियता-मनोविजयी होने के साथ-साथ साधक का जितेन्द्रिय होना भी बहुत आवश्यक है; क्योंकि कई बार प्रबल इन्द्रियाँ अत्यन्त उतेजित होकर संयमी (साधु-संन्यासी) के मन को भी बलात् खींच लेती हैं, अर्थात् उसके मन को भी विषयों की ओर ले जाती है। गीता में कहा गया है
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः२ इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ अपने पूर्वसंस्कार एवं अभपास के अनुसार मनुष्य को अहर्निश विभिन्न दिशाओं में अपनी-अपनी ओर खींच ले जाती हैं। जीभ चाहती हैतरह-तरह के मिठाई, पक्वान्न आदि स्वादिष्ट पदार्थ खाने को मिलें । आँखें सुन्दर दृश्य देखने को बार-बार लालायित रहती हैं, कान मधुर संगीत की खोज में रहते हैं । जननेन्द्रिय उसे कामभोग की ओर प्रेरित करती हैं, घ्राणेन्द्रिय उसे सुगन्धित पदार्थ की ओर खींच ले जाती है । अगर मनुष्य असावधान (गाफिल-प्रमादी) रहता है, तो पाँच ही क्यों एक ही इन्द्रिय उसे विनाश के गर्त में डालने में काफी होती है, पांचों इन्द्रियविषयों में आसक्त का तो कहना ही क्या ? कहा भी है
कुरंग-मातंग-पतंग-भृग-मीनाहताः पंचभिरेव पंच ।
एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच॥ मृग श्रवणेन्द्रियविषय में, हाथी स्पर्शेन्द्रियविषय में, पतंगा चक्षुरिन्द्रियविषय में, भौंरा घ्राणेन्द्रियविषय में और जिहद्रिय विषय में आसक्त होकर अपने प्राण खो देता है। यों एक-एक इन्द्रिय में आसक्त होकर प्राणी विनष्ट हो जाता है अतः जो मनुष्य एक ही इन्द्रिय का प्रमादी होता है वह भी जब नष्ट हो जाता है तो पांचों इन्द्रियविषयों के प्रमादी का तो कहना ही क्या है ?
कहने का मतलब यह है कि इन्द्रियों और मन के विषय असीम हैं, इनके सेवन से मनुष्य को कभी तृप्ति नहीं होती, वरन् आत्मविजय या आत्मज्ञान की महत्वपूर्ण आवश्यकता बीच में ही छूट जाती है, काम, क्रोध, लोभ, मोह मत्सर, राग-द्वोष, ईर्ष्या, विषयास्वादन, आदि हीनवृत्तियों के अधीन होकर मनुष्य की जीवनदिशा पूर्णतया
१. कठोपनिषद् १/३/६
२. भगवद्गीता, अ० ६
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