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________________ ( १२ ) का कारण ४३, मन की चंचलता ४४, मनोनिग्रह के उपाय ४५, मन का विजेता, जगत का विजेता ३७, जितेन्द्रियता ४८, जितेन्द्रिय के लक्षण ४६, इन्द्रियों को वश में करने के उपाय ५१, शरीरविजयी ५२, शरीर की आवश्यकतायें ५३, शरीररूपी अश्व के रईस बनो, सईस नहीं ५४, जितात्मा ही शरण्य और प्रगित प्रेरक ५६ । ६३. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नही–१ ५७-६६ धर्मकार्य क्या है, क्या नहीं ५७, धर्मकार्य की कोटि का दान ५८, पुण्य कार्य की कोटि का दान ५८, पापकार्य की कोटि का दान ५६, सेवा भी धर्म, पुण्य और अधर्मरूप ६०, कष्ट सहकर करुणा: विशुद्ध धर्मकार्य ६१, धर्मकार्य : स्वान्तःसुखाय ६२, निःस्वार्थ दया या अनुकम्पा भी धर्मकार्य ६३, प्राण देकर पाँच व्यक्तियों की रक्षा-हब्शी गुलाम का दृष्टान्त ६४, धर्म-पोषक सभी कार्य, धर्मकार्य हैं ६५, सेवा : धर्मकार्य का उत्तमांग ६७, धर्ममय या अहिंसक समाज रचना का प्रयोग भी धर्म-सेवा कार्य ६७, दान, शील, तप और भावरूप धर्म का आचरण भी धर्मकार्य ६७, धर्मकार्य की कसौटी ६८ । ६४. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ ७०-८४ अन्य कार्यों से पहले धर्मकार्य क्यों ? ७० धर्मक्रियायें वे ही जो सत्य अहिंसा आदि से संलग्न हो ७०, सामाजिक रीति-रिवाज धर्मक्रियायें नहीं ७१, धर्मकार्य से विमुखता : वर्तमान काल की स्थिति ७४, धर्मकार्य से धर्म का पलड़ा भारी रखो ७५, सुखी धर्मकार्य से ही, अधर्मकार्य से नहीं ७५, नारायणदास सिन्धी का दृष्टान्त ७५, पाप का त्याग कर देने से सुख-शांति संभव-जुम्मन अभियुक्त का दृष्टान्त ७६, धर्मकार्य का प्रत्यक्ष फल ७८, कर्तव्य भी धर्मकार्य में : कब और कब नहीं ७६, साम्प्रदायिक कर्तव्य और धर्मकार्य में अन्तर ८१, पुण्यकार्य और धर्मकार्य का घपला ७१, धर्मार्जित व्यवहार ही धर्मकार्य की कोटि में ८२, क्या ये धर्मकार्य हैं ८२, इसीलिए धर्म कार्य को श्रेष्ठ कार्य कहा ८४ । ६५. प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ८५-१०६ प्राणिहिंसा क्या है ? ८५, दस प्रकार के प्राण ८५, द्रव्यहिंसा और भावहिंसा ८७, हिंसा होना और हिंसा करना में महदन्तर हैडाक्टरों का दृष्टान्त ८७, हिंसा का लक्षण ८६, हिंसा के विविध विकल्प ९०, हिंसा के परिणामों की विभिन्नता के कारण फल-प्राप्ति में भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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