________________
२५६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ की बात को सर्वथा भूलकर स्वकल्याण के नाम पर भांग, गांजा, सुलफा, चरस आदि या शराब, ताड़ी, तम्बाकू आदि नशैली चीजों को खा-पीकर अपना जीवन भ्रष्ट करते ही हैं, साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले बालकों, युवकों आदि सबको अपने इस दुर्व्यसन का चेप लगाते रहते हैं। ऐसे साधु स्व-पर-कल्याणसाधक के बदले स्व-परकल्याण-बाधक ही अधिक होते हैं।
कई साधु लोगों के समक्ष ऐसा प्रचार करते हैं-"साधु को सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय, प्रान्तीय आदि प्रश्नों में नहीं उलझना चाहिये। समाज बने या बिगड़े—इससे साधु को क्या मतलब ? साधु इन सब सांसारिक प्रपंचों में पड़कर क्यों अपना समय, शक्ति एवं दिमाग खर्च करें ? साधु यदि समाज, राष्ट्र आदि के कार्यों में पडता है, तो उसके दोष भी उसे लग जाएंगे, दिनों-दिन साधना में विघ्न-बाधाएँ बढती जायेंगी, आत्मसाधना ठप्प हो जायेगी । वह समाज, राष्ट्र आदि के उलझे हुए प्रश्नों को सुलझाने जाता है, तब उसकी स्व-साधना खटाई में पड़ जाती है; आदि आदि ।
इसी प्रकार कई साधु स्व-कल्याणसाधना को ही मुख्यता देते हैं। उनकी मान्यता यह होती है कि “साधु को एकान्त में, वन में, या एकाकी कहीं रहकर साधना करनी चाहिये । समाज के साथ रहकर सामाजिक, राष्ट्रीय या धर्मसम्प्रदायीय प्रश्नों को सुलझाने के प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए । समाज के प्रश्नों को सुलझाने में ग्रस्त एवं व्यस्त होना नहीं चाहिए, उसे तो सिर्फ अपना ही कल्याण करना चाहिये।"
मध्ययुग में यह मान्यता घर कर गई थी कि साधु को सामाजिक, राजनैतिक आदि क्षेत्रों में मार्गदर्शन या कुछ भी गलत हो रहा हो तो उसे रोकने की प्रेरणा नहीं देनी चाहिये । समाज अपने प्रश्नों को स्वयं सुलझायेगा। राजनैतिक क्षेत्र का साधुओं को अनुभव नहीं होता । अतः साधु को राजनैतिक क्षेत्र में कोई भी मार्गदर्शन, परामर्श या प्रेरणा नहीं देनी चाहिये । उसे तो अपने जप, तप, ध्यान-मौन, (शुष्क) क्रिया आदि में ही संलग्न रहना चाहिये।
परन्तु आज कई साधु पर-कल्याण के नाम पर मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र, जादू, टोना, झाड़-फूंक, गंडा-ताबीज आदि प्रयोग करते हैं, अथवा आसन, प्राणायाम, यौगिक क्रियाएं आदि करते-कराते हैं और अपनी संस्था के नाम से चंदा या दान वसूल करते हैं। साधु की वन्दनीयता : कैसे, किन गुणों से ?
कई साधु धनिकों को प्रेरणा देकर नेत्रदान, वस्त्रदान, आहारदान आदि राहत के कार्य करवाते हैं । जहाँ तक पुण्यकार्य का सवाल है, नि:स्वार्थ या निष्काम भाव से अगर साधु ऐसे कार्यों के लिये किसी धनिक या साधनसम्पन्न को प्ररणा देता है, वह बुरा नहीं है । किन्तु जहाँ तक वन्दनीयता का प्रश्न है, केवल समाजसेवा के कार्य की प्रेरणा देने के कारण कोई भी साधु वन्दनीय नहीं कहला सकता है । साधु की वन्दनी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org