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७५. वन्दनीय हैं वे, जो साधु
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज आपके समक्ष विशिष्ट उत्तम जीवन की झांकी प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जो वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय एवं सम्मान्य है। महर्षि गौतम ने ऐसे जीवन को साधुजीवन बताया है। गौतमकुलक का यह ६१वाँ जीवनसूत्र है। इसमें यह निर्देश किया गया है
जे साहुणो, ते अभिवंदियव्वा - -जो साधु हैं, वे अभिवन्दनीय-वन्दन करने योग्य हैं ।
साधु सच्चे माने में कौन होते हैं ? वे ही क्यों वन्दनीय हैं ? इन सब पहलुओं पर मैं आपके समक्ष अपना विशिष्ट चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
साधु : स्व-पर-कल्याणसाधक साधु का निर्वचन इस प्रकार किया गया है
साध्नोति स्व-पर-कार्यमिति साधुः जो अपना और दूसरों का कार्य साधता है, वह साधु है । कार्य सिद्ध करने का अर्थ-अपना मतलब सिद्ध करना नहीं है । अपितु जो अपने और दूसरों के कल्याण को सिद्ध करने के लिये अहर्निश, अप्रमत्त होकर प्रयत्नशील रहता है, वही सच्चे माने में साधु है।
साधु के इस व्युत्पत्त्यर्थ में साधुजीवन का उद्देश्य आ जाता है। साधु अपना कल्याण करने के साथ-साथ जो भी जिज्ञासु उसके सम्पर्क में आएं, उनका कल्याण कैसे हो? इस पर चिन्तन करके निष्कर्ष प्रस्तुत करे। परन्तु दुःख है कि आज अधिकांश साधु इस उद्देश्य से भटक गये हैं। कई साधु तो अपने इस उद्देश्य से इतने दूर चले गये कि उन्हें यह भान ही नहीं कि हमने साधु-जीवन किस लिये अंगीकार किया था ? न तो वे स्व-कल्याण में ही लगते हैं, न पर-कल्याण में । बल्कि वे निठल्ले, अकर्मण्य एवं आलसी बनकर दिनभर इधर-उधर की गप्प लड़ाते रहते हैं। बातों में वे दुनियादारी के उस पार तक पहुँच जाते हैं। न शास्त्र-स्वाध्याय, न ध्यान, न जपतप और न कोई त्याग-प्रत्याख्यान । अच्छा खाना-पीना, अच्छे कपड़े पहनना और गप्पें मारना; यही साधुवेषी साधु वर्तमान में करते हैं। कई साधु तो स्व-पर-कल्याण
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